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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म ॥२५४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शय्यासनकहिये एकांत बनविबेरहना स्त्री तथा बालक तथानपुंसुकतथा ग्राम्यपशु इनकी संगतिसाधुवों को न करन तथा और भी संसारी जीवोंकी संगति नकरनी मुनिको मुनिद्दीकी संगतियोग्य है और कायक्लेश कहिये श्रीषम गिरिके शिखर शीतमें नदी के तीर वर्षामें वृक्ष के तले तीनों कालके तप करने तथा विषमभूमि रहना मासोपवासादि अनेक तप करना ये पटवाह्य तप कहे और श्राभ्यन्तरषटतप सुनो प्रायश्चित कहिये जो कोई मनसे तथावचनसेतथाकाय से दोषलगासो सरलपरिणामकर श्रीगुरसे प्रकाशकर तपादि दंड लेना औरबिनय कहिये देवगुरुशास्त्र साधर्मियोंका बिनयकरना तथा दर्शन ज्ञान चारित्रका आचरण सोही इनका विनय और इनके जे धारक तिनका आदर करना आपसे जो गुणाधिकहो उसे देखकर उठ खड़ा होना सन्मुख जाना आप नीचे बैठना उनको ऊंचे बिठाना मिष्ट वचन बोलने दुःखपीडा मेटनी और वैयात्रत कहिये जे तपसे तप्तायमान हैं रोगसे युक्त है गात्रजिनका वृद्ध हैं अथवा नव वर्षके जेबालक है तिनका नानाप्रकार यत्न करना औषधपथ्य देना उपसर्ग मेटना और स्वाध्याय कहिये जिनशासनका बचना श्राम्नायकहिये परिपाटी अनुप्रेक्षा कहिए बारंबारचितारना धर्मोपदेशकहिये धर्म का उपदेश देना और व्यतसर्ग कहिये शरीरका ममत्व तजना तथा एक दिवस आदि वर्ष पर्यंत कायोत्सर्ग धरना और ध्यान कहिए रौद्र ध्यानका त्यागकर धर्मध्यान शुक्लध्यानका ध्यावना ये छह प्रकारके अभ्यंतर तप कहे गये वाह्या भ्यन्तर द्वादश तप सबही धर्म हैं इस घर्मके प्रभावसे भव्यजीव कर्मका नाश करे हैं और तपके प्रभाव से अद्भुत शक्ति होय सर्व मनुष्य और देवोंको जीतने के समर्थ होय है विक्रिया शक्तिकर जो चाहे सो करे विक्रियाष्टभेद अणिमा, महिमा लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य ईशत्व वशित्वसो महामुनितपो For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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