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॥२३॥
का हार वक्षस्थल पर धारे अनेक पुष्पों के समूह कर विराजित मानों वसंतहीकारूप है सो उसको हर्षसे पूर्ण नगरके नरनारी देखते देखते तृप्त न हुवे असीस देय हैं नाना प्रकार के वादित्रों के शब्द होरहे हैं जय जयकार शब्दहोयहें अानंद से नृत्यकारिणीनृत्य करे, इत्यादिहर्षसंयुक्त रावणने लंकामें प्रवेशकिया, महा उत्साह की भरी लंका उसे देख रावण प्रसन्न भए बंधुजन सेवकजन संबही पान्द को प्राप्त भए रावण राजमहल में आए देखो भव्यजीवहोकि रथन-पुरकेघनी राजा इन्द्रनेपूर्व पुण्यकेउदयसेसमस्तवैरियोंके समूह जीतकर सर्व सामग्री पूर्ण तिनको तृणवत् जान सर्व को जीतकर दोनों श्रेणी का राजबहुतवर्ष किया
और इन्द्र के तुल्य विभूति को प्राप्त भया और जब पुण्य क्षीण भया तव सकल विभूति विलय होगई रावण उसको पकड़कर लंका लेपाया इसलिये हे श्रेणिकममुंष्य केचपल सुख को धिकारहोवे यद्यपि स्वर्गलोकके देवों का विनाशीक सुख है तथापि आयुपर्यन्त और रूप नहोय और जबदूसरीपर्याय पावेतब और रूप होय और मनुष्य तो एकही पर्याय में अनेक दशाभोगे इसखिये मनुष्य होय जे मायाका गर्ष करे हें वे मूर्ख हैं
और यह रावण पूर्व पुण्य से प्रपल वैरियों कोजीत कर अति वृद्धिको प्राप्त भया । यह जानकर भव्यजीव सकल पाप कर्म का त्याग कर केवल शुभ कर्म ही को अंगीकार करें॥ इति बादश पर्व सम्पूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर इन्द्र के सामन्त धनी के दुख से व्याकुल भए तब इन्द्र का पिता सहसार जो उदासीन श्रावक है इससे बीनती कर इन्द्र के छुड़ावने के अर्थ सहवार को लेकर खंका में रावण के समीप जाप बारपार से पीनती कर इनके सकल वृतान्त कहकर रावण के दिगगए, रावण ने सहसार को उदासीन श्रावक जानकर बहुत विनयकिया, इनको भासन दिया भाप सिंहासन से उतर बैठ, सहस्रार रावण को ||
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