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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२२ ॥ अथानन्तर मरुत के यज्ञ का नाश करणहारा जोरावण सो लोक विषे अपनाप्रभाव विस्तारताहुवा शत्रुवों को वश करता हुवा अठारहवर्ष विहारकर जैसे स्वर्ग में इन्द्र हर्ष उपजावे तैसे उपजावता भया पृथिवीका पति कैलाश पर्वतके समीप आय ठहरा वहां निर्मल हैजल जिसका ऐसी मन्दाकिनी कहिये गङ्गा समुद्र की पटराणी कमलन के मकरन्द कर पीत है जल जिसका ऐसी गंगाके तीर कटफके डेरे कराए और आप कैलाश के कच्छ में. क्रीडा करता भया गंगाका स्फटिक समान जल निर्मल उसमें खेचर भूचर जलचर क्रीड़ा करते भये जे घोड़े रजमें लोटकर मलिन शरीर भएथे वे गंगामें निहलायजल पान कराय फिर ठिकाने लाय बांधे हाथी सपराए रावण बालीका वृत्तान्त चितार चैत्यालयोंको नमस्कार कर धर्मरूप चेष्टा करता तिष्ठा ।। ___ अथानन्तर इन्द्रने दुलंधिपुर नामा नगरमें नलकूवर नामा लोकपाल थापा था सो रावणको हलकारों के मुख से नजीक पाया जान इन्द्र के निकट शीघगामी सेवक भेजे और सर्व वृत्तान्त लिखा कि रावण जगतको जीतता समुद्र रूप सेना को लिए हमारी जगह जीतने के अर्थ निकट श्राय पड़ा है इस तरफके सर्बलोक कम्पायमान भए हैं सो यह समाचार लेकर नलकूवरके इतवारी मनुष्य इन्द्र के निकट आए इन्द्र भगवानके चैत्यालयोंकी बन्दनाको जाते थे सो मार्गमें इन्द्रको जाय पल दिया इन्द्रने बाँचकर सर्व रहस्य जानकर पीछे जवाब लिखा कि में पांडुकबन के चैत्यालयों की बन्दना कर पाऊहूं इतने तुम बहुत यत्न से रहना तुम अमोघास्त्र कहिये खाली न पड़े ऐसा जो शस्त्र उसके धारक हो और मेंभी शीघही आऊहूं ऐसी लिखकर बन्दनामें आसक्तहै मन जिसका वैरियोंकी सेनाको न गिनताहुवा । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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