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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥२९॥ म अयानन्तर राजा मरतन लाथ जोड़ धरती से मस्तक लगाय रावणको नमस्कारकर बिनती करता भया हे देव हे लंकेश ! मैं आपका सेवक हूं आप प्रसन्न होवो मैं अज्ञानी ने अज्ञानियों के उपदेश कर हिंसा मार्ग रूप खोटी चेष्टा करी सो श्राप क्षमा करो जीवों से अज्ञान कर खोटी चेष्टा होयहै अन मुझे धर्मके मार्ग मे लेवो और मेरी पुत्री कनकप्रभा आप परमो जे संसारमें उनम पार्थ हैं तिनके आपही पात्रहो तब रावण प्रसन्न भए कैसे हैं रावण नोनमी भूत होय उसमें दयावान, तब रावण ने उसकी पुत्री परणी और तिसको अपना किया सो कनकप्रभा रावणकी अतिबल्लभाभई मरुतमे रावणके सामंतलोक बहुतपूजे नानाप्रकारके वस्त्राभूषण हाथी घोड़े स्म दिये कनकप्रभा सहित रावण रमताभया उसके एकवर्ष पर्यंत कृतचित्रनामा पुत्रीभई सो देखनहारे लोकनको रूपफर आश्चर्यकी उपजा. । वनहारीमानों मूर्तिवंती शोभाहीहै रावणके सामंतमहा शूरवीर तेजस्वी जीखकर उपजाहै उत्साह जिन के | संपूर्ण पृथ्वी तलमें भूमतभए तीन खंडमें जोराजाप्रसिद्ध होताथा और बलवान होताथा सो रावण के | योधाओंके आगे दीनताको प्राप्त भया सबही राजा बश भए कैसेहें राजा राज्यके भंगका है भय | जिनको विद्याघर लोग भरतक्षेत्रका मध्य भाग देख आश्चर्यको प्राप्त भए मनोज्ञ नदी ममोग पहाड़ | मनोज्ञ बन तिनको देख लोक कहते भए अहो स्वर्ग भी यहांसे अधिक रमणीक नहीं चित्तमें ऐसे उपजे है यहांही वास करिये समुद्र समान विस्तीर्ण सेना जिसकी ऐसा रावण जिससमान और नहीं हो अद्भुत धीर्य अद्भुत उदारता इस रावणकी यह समस्त विद्याधरोंमें श्रेष्ठ नजर श्रावेहे इस भांति समस्त लोक प्रशंसा करे हैं जिस देशमें रावण गया तहां तहां लोक सनमुख प्राय मिलते भए जेजे पृथ्वीमें For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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