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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥१ तब स्वस्तिमति कहती भई हे पुत्र में महादुःखिनी हूं जो स्री अपने पति से रहित होय उसको काहेका सुख संसार में पुत्र दो भांति के हैं एक पेटका जाया एक शास्त्रका पढ़ाया सो इनमें पढ़ाया विशेष है एक समल है दूसरा निर्मल है मेरे धनीके तुम शिष्यहो सो तुम पुत्रसे अधिक हो तुम्हारी लक्ष्मी देखकर में धीर्य धरूं हूं तुम कहीथी माता दक्षिणा लेवो मैं कही समय पायलंगी वह वचन याद करो जे राजा पृथिवी के पालने में उद्यमी हैं वे सत्यही कहे हैं और जे ऋषि जीव दयाके पालनेमें तिष्ठे हैं वेभी सत्यही कहे हैं तू सत्यकर प्रसिद्ध है मोको दक्षिणा देवो इस भांति स्वास्ति मतिने कहा तब राजा विनय कर नीभत होय कहतेभये हे माता तुम्हारीआज्ञासे जेन करने योग्य कामहें सोभीमें करूं जो तुम्हारे चित्त में होय सो कहो तब पापिनी ब्राह्मणीने नारद और पर्वत के विवादका सर्व वृत्तान्त कहो और कहा मेरा पुत्र सर्वथा झूठा है परन्तु इसके झूठको तुम सत्य करो मेरे कारण उसका मान भंग न होय तब राजा यह अयोज्ञ जानतेहुएभी ताकी बात दुर्गतिका कारण प्रमाण करी तब बह राजा को आशीर्वाद देयघरआई बहुत हर्षित भई दूजे दिन प्रभातही नारंद पर्वत राजा के समीप आए अनेक लोक कोतुहल देखनेको आए सामन्त मन्त्री देशके लोग बहुत आय भेलेभए तब सभाके मध्य नारद पर्वत दोनों में बहुत विवाद भया नारद तो कहे अज शब्दका अर्थ अंकुर शक्ति रहित शालियहै और पर्वत कहे पशु है तब राजा वसुको पूछा तुम सत्यवादियों में प्रसिद्ध हो जो क्षीर कदम्ब अध्यापक कहते थे सों कहो तब राजाकुगतिको जानेवाला कहताभया जो पर्वत कहहै सोई चीर कदम्ब कहतेथे ऐसा कहतेही सिंहासनके स्फटिकके पाए टूटगये सिंहासन भूमिमें गिरपड़ा तब नारदने कही हे वसु ! असत्यके प्रभाव For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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