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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ हाय हायमें मंदभागिनी प्राणनाथ बिना हैतागेइ कसा पापीने उनको मारा अथवा किसा कारणकर देशांतरको उठगए अथवा सर्वशास्त्रविषे प्रवीणथे सो सर्वपरिग्रहका त्यागकर वैराग्यपायमुनिहोगए इस भांत विलापकरते रात्रि पूर्वभई जवप्रभातर्भई तबपर्वत पिताको ढूंढने गया उद्यानमें नदीके तटपर मुनियों के संघसहित श्रीगुरु विराजे हुएथे उनके समीप विनयसहित पिता बैठादेखातबपीछे जायकरमातानेकहीकि हे मात हमारापिता मुनियों नेमोहाहैसो नग्नहोगयाहै तब स्वस्तिमतीनिश्चयजानकरपतिकेवियोगसेअति दुखीभई हाथोंकर उरस्थलको कूटतीभई और पुकारकर रोवतीभई सो नारद महा धर्मात्मा यह वृत्तान्त सुन कर स्वस्तिमती पै शोकका भरा पाया उसे देखकर अत्यन्त रोक्नेलगी और सिर कूटती भई शोक विषे अपनेको देखकर शोक अतीव बढ़े है तब नारदने कही हे माता काहेको वृथा शोक करोहो वे धर्मात्मा जीव पुण्याधिकारी सुन्दरहै चेष्टा जिनकी जीतव्यको अस्थिर जान तपकरनेको उद्यमी भएहें सो निर्मल है बुद्धि जिनकी अयशोक किएसे पीछे घर न आवें या भांति नारदने सम्बोधी तब किंचित शोक मन्दभया घरमें तिष्ठी महा दुखित भरतार की स्तुति भी करे और निन्दा भी करे यह दार कदम्बके बेराग्य का वृत्तान्त सुन राजा ययाति तत्व के वेत्ता वसु पुत्रको राज देय महा मुनिभए वसुका राज्य पृथिवी विषे प्रसिद्ध भया आकाश तुल्य स्फटिक मपि उस के सिंहासन के पावे बनाए उस सिंहासन पर तिठे सो लोक जाने कि राना सत्यके प्रताप कर आकाश विष निराधार तिष्ठे है॥ अथानन्तर हे श्रेलिक एक दिन नारद के मोर पस्त के चर्चाभई तब नारदने कही कि भगवान वीतराग देवने धर्म दोय प्रकार प्ररूपा है एक मुनिका दूसरा गृहस्थी का मुनिका महव्रतरूप हे गृहस्थी। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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