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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेक बनके हाथी रहेहैं सो जलमें केलि करे, उसकर शोभायमान हैं और नाना प्रकार के पवियों के समूह मधुर गानकरे हैं सो मानों परस्पर संभाषणंही करे हैं फेन कहिए झागके पटल उनकर मंडित है तरंगरूप जे भौंह उनके विलासकर पूर्ण हैं भंवरही हैं नाभि जिसके और चंचल जे मीन वई नेत्र जिसके और मुन्दर जे पुलिन वेई हैं कटिजिसके नाना प्रकारके पुष्पोंकर संयुक्त निर्मल जली बस जिसका मानों साक्षात सुन्दर स्त्रीही है उसे देखकर रावणा बहुत प्रसन्न भए प्रबल जे जलचर उनके समूहकरमंडित है गंभीरहै कहूं एक वेग रूप बहे है कहूं एक मंदरूप बहेहै कहीं एक कुंडलाकार बहे है नाना चेष्टाकर पूर्ण ऐसी नर्मदा को देखकर कौतुक रूप हुआ है मन जिसका सो रावण नदी के तीर उतरा नदी भयानक भी है और सुन्दर भी है। ___अथानन्तर माहिष्मती नगरी का राजा सहमरश्मि पृथ्वी में महा बलवान मानों सहमरश्मि कहिए सूर्य ही है उसके हजारों स्त्री नर्मदा विषे रावण के कटक के ऊपर सहस्ररश्मिने जल यंत्रकर नदी का जल थांभा और नदी के पुलिन विषे नाना प्रकार की क्रीड़ा करी कोई स्री मानकर रही थी उसको बहुत शुश्रुषाकर प्रसन्नकरा दर्शन स्पर्शनमान फिर और मानमोचन प्रणाम परस्पर जल केलि हास्य नानाप्रकार पुष्पोंके भूषणोंके शृंगार इत्यादि अनेक स्वरूप क्रीड़ा करी मनोहरहे रूप जिसका जैसे देबियासहित इंद्र क्रीड़ाकरे तैसे राजासहमूरश्मिने क्रीड़ा करी जे पुलिनके बालूरेत विषे रत्नके मोतियों के आभूषण टूटकर पड़ें सोन उठाये जैसे मुरझाई पुष्पोंकी मालाको कोई न उठावे कैयक राणी चंदन के लेपकर संयुक्त जल विषे केल करती भई सो जल धवल हो गया कैयक केसर के कीच For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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