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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण १११ प्रम यह विचागकि जो महावीर्यवान पराक्रमीहै उनके एक खडगहीका सहाराहे तवमन्दोदरीने हाथ जोड़ बिनती करी हे प्रभू आप प्रगटलौकिकस्थिति ज्ञाताहो अपनेघरकी कन्या औरको देनी और औरोंकी श्राप लेनी इनकन्याओंकी उत्पत्ति ऐसीही है और खरदूषण चौदह हजार विद्याधरों का स्वामी है विद्याधर कभी भी युद्धसे पीछे न हटें बड़े बलवानहें और इस खरदूषणको अनेक सहस्रविद्या सिद्धहैं महागवंतहै आपसमान शूरवीर है यह बार्ता लोकोंसे क्या आपनेनहीं सुनी है आपके और उसके भयानक युद्ध प्रवरतेतबभी हारजीतका संदेह ही है और वह कन्याहर लेगयाहै हरणेकेकारण वह कन्या दूखितभई है सोखरदूषणकमारनेसे वह विधवाहोयह और सूर्यरजको मुक्तिगए पीछे चंद्रोदर विद्याधर पाताललंका थानेथा उसे काढ़कर यह खरदूषण तुम्हारी बहिन सहित पाताललंका तिष्ठहै तुम्हागसंबंधीहै तबरावण बोले हे प्रिये में युद्धसे कभी नहीं डरूं परंतु तुम्हारे बचन नहीं उलंघने और बहिन विधवा नहीं करणी सो हमने क्षमाकरी तब मन्दोदरी प्रसन्न भई। __ कर्भके नियोगसे चंद्रोदर विद्याधर कालको प्राप्त भया तब उसकी स्त्री अनुराधा गर्भिणी विचारी भयानक बनमें हिरणीकी न्याई भ्रमै उसने मणिकांत पर्वतपर सुन्दर पुत्र जना शिला ऊपर पुत्र का जन्म भया शिला कोमल पल्लव और पुष्पोंके समूहसे संयुक्तहै अनुक्रमसे बालकवृद्धिको प्राप्त भया यह बन बासिनी माता उदास चित्त पुत्रकी अाशासे पुत्रको पाले जब यह पुत्र गर्भमें आया तबहीसे इनके माता पिताको बैरियों से विराधना उपजी इस लिये इसका नाम विराधित धरा यह विराधित राजसम्पदा वर्जित जहां जहां राजाओं के पास जाय वहां वहां इसका आदर न होय सो जैसे सिरका केश स्थानक से छूट अदा न पावे से जो निज स्थानकसे रहित होय उसका सनमान कहांते होय सो यह - For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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