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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१०॥ पद्म है चर्ण जिसके स्निग्धहै तनु जिसका लावण्यता रूपी जलकी प्रवाहही है महा लज्जा के योग से नीचीहै दृष्टि जिसकी पुष्पों से अधिक है सुगंधता और सकुमारता जिसकी और कोमल हैं दोऊभुज लता जिसकी और शंखके कण्ठ समानह ग्रीवा [ गरदन ] जिसकी पूर्णमाशीके चन्द्रमा समान है मुख जिसका शुक [ तोता ] हीसे आत सुन्दर है नासिका जिसकी मानों दोऊ नेत्रोंकी कांति रूपी नदीका यह सेत्त बन्धही है मूंगा और पल्लवस अधिक लाल, अधर (होंठ) जिसके और महाज्योति को धरे अति मनोहरहे कपोल जिसका और वीणका नाद भ्रमरका गुंजार और उन्मत्त कोयलका शब्द से अति सुंदरहै शब्द जिसका और कामकी दूतीसमान सुंदरहै दृष्टि जिसकी नीलकमल और रक्त कमल और कुमदकोभी जीते ऐसाश्यामताप्रारक्तता शुक्लताको घरे मानों दशोंदिशामें तीन रंगके कमलोंके समूह ही बिस्तार राखेहैं और अष्टमीके चन्द्रमा समान मनोहरहै ललाट जिसका और लंबे बांको काले मुगन्ध सघन सचीवन केश जिसके कमल समानहैं हाथ और पांव जिसके और हंसनीको और हस्तनी को जीते ऐसी है चाल जिसकी और सिंहनीसे भी अति क्षीणहै काट जिसकी मानों साक्षात लक्ष्मी ही कमलके निवास को तजकर रावण के निकट ईर्षा को धरती हुई आई है ईर्षा क्योंकि मेरे होते हुवे रावण के शरीर को विद्या क्यों स्पर्शे ऐसा अद्भुत रूप को धरण हारी मन्दोदरी रावण के मन और नेत्रों को हरती भई सकल रूपवती स्त्रियों का रूप लावण्य एकत्र कर इस का शरीर शुभ कर्म के उदय से बना है अंग अंग में अद्भुत श्राभूषण पहरे महा मनोज्ञ मन्दोदरी को अवलोकन कर रावण का हृदय काम बाणसे बींधा गया महा माधुर्यताकर युक्त जो रावण की दृष्टि उसपर गई थी वह For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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