SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पव ॥१२॥ विषका अंकूर जिनके,हे माता कहां यह रंक वश्रवण विद्याधर जो देव होय तोभी हमारी दृष्टिमें न यावे तुमने इसका इतना प्रभाव वरणन किया तू बीरप्रसवनीअर्थात् योधावोंकीमाताहे महाधीरहे औरजिन मार्ग में प्रवीणहै यह संसारकी क्षमाभंगुर माया तेरेसे बानी नहीं काहेको ऐसे दीन वचन कायर म्रियोंके समान तू कहेहे क्या तुझे इस रावणकी खबर नहींहै यह श्रीवत्सलक्षणकर मंडित अद्भुत पराक्रमका धारनहाग महाबली अपारहै चेष्टा जिसकी भस्मसे जैसे अग्नि देवी रहे तैसे मौन गह रहाहै यह समस्त शत्रुओं के भस्म करणको समर्थहै क्या तेरे विचारमें अबतक नहीं पायाहै यह रावण अपनी चालसे चितको भी जीतेहै और हायकी चपेटसे पर्वतोंको चूर डारे है इसकी दोनोंभुजा त्रिभुवनरूप मंदिरके स्तंभहें और प्रताप का राजमार्गहै पत्रवतीरूप वृत्तके अंकुर हैं सो तैंने क्या नहीं जाने इस भांति विभपिणने गवणके गुग्म वर्णन करे । तब रावण मातासे कहता भया हे माता गर्वके वचन कहने योग्य नहीं परंतु तेरे संदेह के निवारने अर्थमें सत्य वचन कहूंहू सो सुन जो यह सकल विद्याधर अनेक प्रकार विद्यासे गर्वित दोनों श्रेणियों के एकत्र होयकर मेरेसे युद्ध करें तोभी में सर्वको एक भुजासे जीतूं । रावण कहता भया कि हे माता यद्यपि में सर्व विद्याघरोंके जीतने को समर्थ हैं तथापि हमारे विद्या घरों के कुल में विद्या का साधन उचित है इसमें कुछ लाज नहीं जैसे मुनिराज तपका पाराधन करें तैसे विद्याधर विद्याका आराधन करें सो हमको करणा योग्य है ऐसा कहकर दोनों भाइयों के सहित माता पिता को नमस्कार कर नवकार मन्त्रको उच्चारण कर रावण विद्या साधनेको चले माता पिताने मस्तक | चूमा और असीस दीनी, पाया है मङ्गल संस्कार जिन्होंने स्थिर भूत है चित्त जिनका घरसे निकस कर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy