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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir महा सती सीता शुभा, रामचंन्द्र की नारि । भरत शत्रुधन अनुज हैं, यही यात उरवार ॥४३॥ तदभव शिवगामी भरत, अरु लवअंकुश पूत, मुक्त भए मुनिवरत परि, नमै तिने पुरहूत ॥४४॥ रामचन्द्र को करि प्रणति, नमिरविषेण ऋषीश । रामकथा भाषू यथा, नमि जिन श्रुति मुनिईश ॥४५॥ ॥ संस्कृत ग्रन्धकार का मङ्गलाचर रख . सिद्धं सम्पूर्णभव्यार्थ सिद्धेः कारणमुत्तमम् । प्रशस्तदर्शन ज्ञानचारित्रप्रतिपादनम् ॥१॥ सुरेन्द्रमुकुटाशिलष्ट पादमझांशुकेसरम् । प्रणमामि महावीरं लोकत्रितयमङ्गलम् ॥२॥ अर्थ सिद्ध कहिये कृत कृत्य हैं, और सम्पर्ण भये हैं सर्व सुन्दर अर्थ जिनके अथवा जो भव्य जीवों के सर्व अर्थ पूर्ण करते हैं, आप उत्तम हैं अर्थात् मुक्त हैं औरों को मुक्ति के कारण हैं। प्रशंसा योग्य दर्शन ज्ञान और चारित्रके प्रकाशन हारे हैं। और सुरेन्द्र के मुकटकर पूज्य जो किरण रूप केसर ताको घरेंचरणकमल जिनके, ऐये भगवान महावीर जो तीनलोकप्राणियोंको मङ्गलरूपहें तिनको नमस्कार करूं हूं भावार्थ-सिद्ध कहिये मुक्ति अर्थात् सर्व बाधा रहित उपमारहित अनुपम अविनाशी जो सुख ताकी प्राप्ति के कारण श्रीमहावीर स्वामी जो काम, क्रोध, मान, मद, माया, मत्सर, लोभ, अहंकार, पाखण्ड दुर्जनता क्षुधा, तृषा, व्याधि, वेदना, जरा. भय, रोग, शोक, हर्ष, जन्म, मरणादि रहितहें शिव अर्थात् अविनश्वर हैं। द्रव्यार्थिकनय से जिनका आदिभी नहीं और अन्त भी नहीं अछेद्य अभेद्य क्लेशरहित शोकरहित, सर्वव्यापी, सर्वसन्मुख, सर्वविद्या के ईश्वर हैं यह उपमा औरोंको नाहीं बने है ।जोमीमांसक सांख्य, नैयायिक वैशेषिकबौद्धादिक मत हैं तिनके कर्ता जो मुनि जैमिनि, कपिल, अक्षपाद, कणाद, For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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