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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एसस माकहांलग कहूं इस ग्रन्थ में बलभद्र नारायण प्रतिनारायण तिनका विस्ताररूप चरित्र है जो इस में वद्धि लगावे तो अकल्याणरूप पोपों को तजकर शिव कहिये मुक्ति उसे अपनी करे जीव विषय की बांछाकर अकल्याण को प्राप्त होय हैं । विषियाभिलाष कदाचित् शांति के अर्थ नहीं, देखो विद्याधरों का अधिपति रावण पर स्त्री की अभिलाषाकर कष्ट को प्राप्त भया काम के रागकरहतो गया ऐसे पुरुषों की यह दशा है तो और प्राणी विषय वासनाकर कैसे सुख पावें, रावण हजारां स्त्रियों कर मंडित निरंतर सुख सेवे था तृप्त न भया परदारा की कामनाकर विनाश को प्राप्त भया इन व्यसनों कर जीव कैसे सुखी होय जो पापी परदारा का सेवन करें सो कष्ट के सागर में पड़ें और श्रीरामचन्द्र महा शोलवान् परदारा पराङ्मुख जिनशासन के भक्त धर्मानुरागी बे बहुतकाल राज्य कर संसार को असार जान वीतराग के मार्ग में प्रवर्ते परमपदको प्राप्त भए और भी जे वीतराग के मार्ग में प्रवर्तेगे वे शिवपुर पहुंचेगे इसलिये जेभव्य जीव हैं वे जिनमार्ग की दृढ़प्रतीति कर अपनी शक्ति प्रमाणव्रत का पाचारण करोजो पूर्णशक्ति होय तो मुनि होवो औरन्यनशक्ति होय तोअणुव्रतके धारकश्रावक होवो यह प्राणीधर्मके फलकर स्वर्गमीक्षके सुख || पाबे हैं और पाप के फल से नरकनिगोदके दुःख पाये हैं यह निसंदेह जानों अनादि काल की यही रीति है धर्म सुखदाई अधर्म दुखदाई पाप किसे कहिये और पुण्य किसे कहिए सो उरमें धारो जेते धर्म के भेद ॥ हैं तिनमें सम्यक्त मुख्य हैं और जितने पापके भेद हैं तिनमें मिथ्यात्व मुख्य है सो मिथ्यात्व कहां अतत्व | । की श्रद्धाऔर कुगुरु कुदेव कुधर्म का अाराधन परजीव को पीड़ा उपजावना और क्रोधमान माया लोभ की तीव्रता और पांच इन्द्रियों के विषय सप्त व्यसन का सेवन और मित्रद्रोह कृतघ्न विश्वासघात अभक्ष्य । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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