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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "वनयात्रा अब सुफल भई जो तुम्हारा दर्शन भया, इस भांति दम्पती.परस्पर प्रीतिकी बात कर सखीजन | पुरण १०५७। सहित सरोवर के तीर बैटे नाना प्रकार जल क्रोडा कर दोनो भोजन के अर्थ उद्यमी भए उस समय श्रीराम । मुनि कांतारचर्या के करणहारे इस तरफ आहार को प्राए यह साधु की क्रिया में प्रवीण तिन कोदेख राजा हर्ष कर रोमांच भया राणी सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर ऐसे शब्द कहता भया हे भगवान् । यहां तिष्ठो अन्न जल पवित्र है प्राशुक जल से राजा ने मुनि के पग धोए नवधा भक्ति कर सप्तगण सहितमुनिको महा पवित्र क्षीराहार दिया स्वर्ण के पात्र में लेय कर महा पात्र जे मुनि तिनके कर पात्र में पवित्र अन्न देता भयो निरंतराय अोहार भया तब देव हर्षित होय पंचाश्चर्य करते भए और थाप क्षीण महा ऋद्धि के घारक सोउसदिन रसोई का अन्मठ होय गयो पंचाश्चर्य के नाम, पंच वर्ण रत्नों की वर्षा और महा सुगंध कल्पवृक्षों के पुष्प की वर्षाशीतल मन्द सुगंध पवन दुन्दुभीनाद जय जय शब्द धन्य यह दान धन्य यह पात्र धन्य यह विधि धन्य यह दाता नीके करी नीके करी नादो विरघौ फूलो फलो इस भांति के शब्द आकाश में देव करते भए अथवा नवधा भक्ति के नाम, मुनि को पड़ गाहनो ऊंचे स्थानक सेखना चरणारविन्द घोवने चरणोदक माथे चढ़ावना पूजा करनी मन शुद्ध बचन शुद्ध काय शुद्ध आहार शुद्ध यह नवधा भक्ति और श्रद्धा शक्तिनिर्लोभता दयाक्षमा अदेयसापणो नहीं हर्ष संयुक्तयहदाता के सात गुण वह राजा प्रतिनन्दी मुनिदान से देवों कर पूज्य भयाऔरश्रावकके व्रत घारे निर्मलहै सम्यक्त | जिसके पृथिवी में प्रसिद्ध होता भया बहुत महिमा पाई और पञ्चाश्चर्य में नाना प्रकारकेरत्न स्वर्ण की | वर्षा भई सो दशों दिशा में उद्योत भया और पृथिवोका दरिद्रगया, सजा राशी सहित महाविनयवान्भक्ति For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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