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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ण्द्म १०४३. करो तब श्रीराम को यह वचन प्रतिनिष्ट लगा और क्रोध कर कहते भए तुम अपने माता पिता पुरा पुत्र पौत्र सबों की दग्धकिया करो, मेरे भाई की दग्धकिया क्यों होय जो तुम्हारा पापीयों का मित्र बन्धु कुटुम्ब सो सब नाशको प्राप्तहोय मेरा भाई क्यों मरे उठो उठा लक्षमण इन दुष्टांके संयोग से और ठौर चलें जहांइनपापियों के कटुकवचन न सुनिये ऐसा कह भाईको उरसे लगाय कांधधर उठचले विभीषण सुग्रीवादिक अनेक राजा इनकी लार पीछे २ चले आ राम काहूका विश्वास न करे भाईको कांधे घरे फिर जैसे बालक के हाथ [पिफले आया और हितू छुडाया चाहें वह न छोडे तैसे राम लक्ष्मगा के शरीर को न छोड़े आंसूबोंसे भिज रहे हैं नेत्र जिनके भाई से कहते भए हे भ्रातः श्रच उठो बहुत बेर भई ऐसे कहां सोवो हो अब स्नानकी बेला भई स्नान के सिंहासन बिराजो ऐसा कह मृतक शरीर को सिंहासन पर बैठाया और मोहका भरा राम मणि स्वर्णके कलशों से भाईको स्नान करावता भयां और मुकुट आदि भूषण पहिराये और भोजनकी तैयारी कराई सेवकों को कही नानाप्रकारके रत्न स्वर्ग के भाजन में नानाप्रकारका भोजन ल्यावो उसकर भाईका शरीर पुष्प होय सुन्दर भातदाल फुलका नाना प्रकार के व्यंजन नानाप्रकार के रस शीघ्रही ल्यावो यह श्राज्ञा पाय सेवक सब सामग्रीकर ल्याये नाथके आज्ञा कारी तब रघुनाथ लचणके मुखमे प्रसदेयं मो न प्रसे जैसे अभव्य जिनराजका उपदेश न ग्रहे तब आप कहते भए जा तैंने मोसे कांप किया तो आहारसे कहाँ कोप आहार तो करो मोसे मत बोलो जैसे जिनवाणी अमृतरूप है परंतु दीर्घ संसारीको न रुचे तैसे वह अमृतमई आहार लक्षमण के मृतक शरीरको नरुवा फिर रामचंद्र कहें हैं हे लक्ष्मीधर यह नानाप्रकारकी दुग्वादि पविने योग्य बस्तु सो पीवो For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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