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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ! 1 प्रागा !! पायन परूं हूं नमस्कार करूं हूं तुम तो महा विनयवंत हो सकलपृथिवी विषे यह बात प्रसिद्ध है कि ११०३८ । लक्षमण राम का आज्ञाकारी है सदा सन्मुख है कभी पराङमख नहीं तुम अतुल प्रकाशजगत् के दीपक हो मत कभी ऐसा होय जो कालरूप बायु कर बुझ जावो । हे राजावों के राजन् तुम ने इस लोक को अतिमानन्दरूप कीया तुम्हारे राज्य में अचेन किसी ने न पाया इस भरत क्षेत्रके तुम नाथ हो अब लोक को अनाथ कर गमन करना उचितनहीं. तुमने चक्र करशत्रुवोंके सकलचक्र जीते अब कालचक्रका पराभव कैसे सहो हो तुम्हारा यह सुन्दर शरीर राज्य लशमी कर जैसा सोहता था, वैसाहीमूर्छित भया सोई है हेराजेंद्र अब रात्री भी पूर्ण भई संध्या फूली सूर्य्य उदय होय गया, अब तुम निद्रा तजो. तुम जैसे ज्ञाता श्री मुनि सुत्रतनाथ के भक्त प्रभातका समय क्यों चूकोहो, जो भगवान वीतरागदेव मोहरूप रात्रीको हरलोका लोक का प्रकट करणहारा केवलज्ञान रूप प्रताप प्रकट करतेभये, वे त्रैलोक्य के सूर्य्य भव्यजीवरूपकमलों को प्रकट करणारे तिनकाशरण क्यों न लेवो और यद्यपि प्रभात समय भया परन्तु मुझे अंधकार ही भाते है क्योंकि मैं तुम्हारा मुख प्रसन्ननहीं देखूं इसलिये हेविचक्षण अवनिद्रा तजो जिनपूजाकर सभा में तिष्ठो सब सामंत तुम्हारे दर्शन को खड़े हैं, बड़ा आश्चर्य है सरोवर में कमलफूले तुम्हारा वदन कमल में फूला नहीं देखूं ऐसी विपरीतचेष्टा तुमने अब तक कभी भी नहींकरी उठो राज्यकार्य में चित्तलगावो हे भ्रातः तुम्हारी दोर्घ निद्रा से जिनमंदिरों की सेवा में कमी पड़े है संपूर्ण नगर में मंगल शब्द मिटाये गीत नृत्यवादित्रा बन्द होगये हैं औरों की क्यावात जे महाविरक्त मुनिराज हैं तिनको भी तुम्हारी यह दशा सुनउद्वेग उपज है तुम जिनधर्म के धोरी हो सबही साधर्मीक जन तुम्हारी शुभदशा चाहे हैं वीण बांसुरी मृदंगादिक के For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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