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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन १०३५ अपराध हमको क्यों तजो हो तुम तो ऐसे दयालु हो जो अनेक चूक पडे तो क्षमा करो ॥ पुराण अथानन्तर इस प्रस्ताव विषे लव औग्ग्रंकुश परमविषादको प्राप्त होय विचारते भए कि धिक्कार इससंसार असारको और इस शरीर समान और क्षणभंगुर कौन जो एक निमिष मात्रमें मरणको प्राप्त होय जो बासुदेव विद्याधरोंकर न जीता जाय सोभी कालके जालमें प्राय पड़ा इस लिये यह बिनश्वर शरीर यह विनश्वर राज्य संपदा उसकर हमारे क्या सिद्धि यह विचार सांताके पुत्र फिर गर्भमे आयबे का है भय जिनको पिताके चरणारविन्दको नमस्कार कर महन्द्रोदय नामा उद्यान विषे जाय अमृत स्वर मुनिकी शरण लेय दोनों भाई महाभाग्य मुनिभए जबइन दोनों भाइयोंने दीचाधरी तब लोक अतिव्या कुल भए कि हमारा रक्षक कौन रामको भाई के मरणका बड़ा दुख सो शोकरूप भ्रमणमें पडे जिन को पत्र निकसनेका कुछ सुध नहीं रामको राज्यसे पुत्रोंसे प्रियायोंसे अपने प्राणसे लक्ष्मण अति प्यारा यह कर्मोंको विचित्रता जिसकर ऐसे जीवोंकी ऐसी अशुभ अवस्थाहोय ऐसा संसार का चरित्र देख ज्ञानी जीव वैराग्यको प्राप्तहोय हैं जे उत्तम जनहैं तिनके कछु इक निमित्त मात्र वाह्य कारण देख अंतरंग के विकारभाव दूरहोय ज्ञान रूप सूर्यका उदय होयहै पूर्वोपार्जित कर्मोका क्षयोपशम होय तब वैगग्य उपजे है। अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे भव्योत्तम लक्षमण के काल प्राप्त भए समस्त लोक व्याकुल भए और युगप्रधान जे राम सो अतिव्याकुल होय सब बातों से रहित भए कछु सुध नहा लक्षमण का शरीर स्वभाव ही कर महा सुरूप कोमल सुगंध मृतक भया तो भी जैसे का तैसा सो श्राराम लक्षमण को एक क्षण न तजें कबहूं उर से लगाय लेय कभी पपोले कभी चूबे कबहूं इसे For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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