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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir नहीं तब शची का पति सौधर्मइन्द्र कहता भया सब बंधन में स्नेह का बड़ा बन्धन है जो हाथ पग कंठ । पराण आदि अंग अंग बंधा होय सो तो छूटे परन्तु स्नेह रूप बंधन कर बंधा कैसे छूटे स्नेह का बंधा एक १०३ अंगुल न जायसके रोमचन्द्र के लक्ष्मणसे अतिअनुराग है लक्ष्मण के देखेबिना तृप्ति नहीं अपने जीव से भी उसे अधिक जाने हैं एक निमिष मात्र भी लक्ष्मणको न देखें तो रामका मन विकल्प होय जान सो लक्ष्मणको तजकर कैसे वैराग्य को प्राप्त होंय कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है जो बुद्धिमान भी मूर्ख होय जाय हैं, देखोसुने हैं अपने सर्व भव जिसनेऐसा विवेकी राम भी आत्महित न करे ग्रहो देव हो जीवोंकेस्नेह का बड़ा बन्धन है इस समान और नहीं इसलिये सुबद्धियों को स्नेह तज संसारसागर तरिख का यत्न करना चाहिये, इसभांति इन्द्र के मुख्नका उपदेश तत्वज्ञानरूप और जिनवर के गुणों के अनुराग से अत्यंत पवित्र उसे सुनकर देव चित्त की विशुद्धता को पाय जन्म जरा मरण के भय से कंपायमान भए मनुष्य हाय मुक्ति पायबे की अभिलाषा करते भए ॥ इति ११४ एकसो चौदवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___अथानन्तर इन्द्र सभा से उठे तव सुर कहिए कल्पवासी देव और असुर कहिए भवनवासी वितर ज्योतिषीदेव इन्द्रको नमस्कार कर उत्तम भावधर अपने अपने स्थानकगए, पहिले दूजे स्वर्ग लग भवन । वासी विंतर ज्योतिषी देव कल्पवासीदेवोंकर लेगए जाय , सो सभा में के दो स्वर्ग वासा देव रत्न चल औरमृगचूल बलभद्रनागयणके स्नेह परखिबे को उद्यमी भए, मन में यह धारणा करी वे दोनों भाई परस्पर प्रेम के भरे कहिए हैं देखें उन दोनों की प्रीति राम के लक्ष्मण से ऐता स्नेह है जिस के देख | बिनो न रहे सो राम का मरण सुने लक्ष्मण को क्या चेष्टा होय लक्ष्मण शोक कर विहल भया क्या For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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