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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पळ | सिद्धि पदको सिधारें उस मार्ग विष चलिवेको उद्यमी भया ॥ इति एकसौ बारहवां पर्व मंपूर्णम् ॥ | .१.२४ : अथानन्तर रात्रि व्यतीत भई सोला बानी के स्वर्ण समान सूर्य अपनी दीप्तिकर जगत विर्ष उद्यांत करता भया जैसे साधु मोचमार्ग का उद्योत करे नचत्रोंके गण अस्तभए और सूर्य के उदयका कमल छले जैसे जिनराजके उद्योत कर भव्य जीव रूप कमल फूले हनूमान महा वैराग्य का भग जगतके भोगोंसे विरक्त मंत्रियों से कहता भया जैसे भरत चक्रवर्ती पूर्व तपोवनको गए तैसे हम जावेंगे तब मंत्री । प्रेमके भरे परम उद्वेगको प्राप्तहोय नाथसे विनती करते भए है देव हमको अनाथ न करो प्रसन्न होवो हम तुम्हारे भक्त हैं हमारा प्रतिपालन करो तब हनुमानने कही तुम यद्यपि.निश्चय कर मेश्राज्ञाकारी हो तथापि अनर्थ के कारण हो हितके कारण नहीं जो संसार समुद्र से उतरे और उसे पीछे सागर में । डारे वे हितू कैसे निश्चय थकी उनको शत्रुही कहिए जब इस जीव ने नग्कके निवास विषे महा दुःख । भोगे तब माता पिता मित्र भाई कोई ही सहाई न भया यह दुर्लभ मनुष्य देह और जिनशासन का ज्ञान पाय बुद्धिवानों को प्रमाद करना उचित नहीं और जैसे राज्य के भोगसे मेरे अप्रीतिभई तैसे || तुमसे भी भई यह कर्म जनित ठाठ सर्व विनाशिकहैं निसंदेह हमारा तुम्हारा वियोग होयगा जहां | संयोगहै वहां वियोगहै सुर नर और इनके अधिपति इन्द्र नरेंद्र यह सबही अपने अपने कर्मों के प्राधीन हैं कालरूप दावानल कर कौन कौन भस्म न भए में सागरापर्यंत अनेक भव देवोंके मुख भोगे परंतु तृप्त न भया जैसे सूके इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय गति जाति शरीर इनका कारण नाम. कर्म है | जिसकर ये जीव गति गति विषे भूमण करे हैं सो मोहका बल महाबलवानहै जिसके उदयकर यह शरीर । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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