SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1025
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण पद्म अाज्ञा मनाऊं और सुमेरु पर्वत आदि पर्वतों विषे मरक मणित श्रादि नाना जाति के रत्नोंकी निर्मल १०१॥ शिला तिनमें स्त्रियों सहित क्रीड़ा करूं इत्यादि मनके मनोरथ करता हुवा भामंडल सैकडों वर्ष एक महूर्तका न्याई व्यतीत करताभया यह किया यह करूं यह करूंगा ऐसा चितवन करता अायुका अन्त न जानता भया एक सतखणे महिलके ऊपर सुन्दर सेजपर पौढ़ाथा सो विजुरी पडी और तत्काल कालको प्राप्त भया, दीर्घ सूत्री मनुष्य अनेक विकल्प करें परन्तु अात्माके उद्धार का उपाय न करें तृष्णाकर हता क्षणमात्रमें भी साता न पावे मृत्यु सिरपर फिरे है उसकी सुध नहीं क्षण भंगुर सुख के निमित्त दुर्बुद्धि आत्महित न करें विषय बासनाकर लुब्ध भया अनेक भांति विकल्प करता रहे सो विकल्पकर्म बंधके कारण हैं धनयौवन जीतव्य सब अस्थिरहें जो इनको अस्थिर जान सर्व परिग्रहका त्यागकरें आत्मकल्याणकरें सो भवसागरमें न डूबे औरविषयाभिलाषी जीव भव भव विषकष्ट सहें हजारों शास्त्र पढ़े और शांततान उपजी तो क्या और एकही पदकर शांतदशाहोयतो प्रशंसायोग्य धर्म करिव की इच्छा होय तो सदा करवो करे और करे नहीं सो कल्याणको न प्राप्तहोय जेसे कटी पदाका कार उठ कर अाकाश विष पहूंचा चाहे पर जाय न सके जो निर्वाण के उद्यम कर रहितहैं सो निर्वाण न पायें जो निरुद्यमी सिद्धपद पावें तो कौन काहेको मुनिव्रत आदरें जो गरुके उतम बचन उर धाम धर्म का उद्यमी होय सो कभी खेदखिन्न न होय जो गृहस्थद्वारे प्रायो साध उसकी भक्ति न करे वाहादिफन दे सो अविवेकी है और गुरु के वचनसुन धर्मको न अादरे सो भव भ्रमण से न छटे जो घने प्रमादी हैं और नाना प्रकारके अशुभ उद्यमकर व्याकुल हैं उसकी आयु बृथा जाय है जैसे हथेली में पाया सन जाता रहे, ऐसा । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy