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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००१0002 पचनन्दिपञ्चविंशतिका । शार्दूलविक्रीड़ित ।। जीवाजीवविचित्रवस्तुविविधाकारार्द्धिरूपादयो रागद्वेषकृतोत्र मोहवशतो दृष्टाः श्रुताः सेविताः। जातास्ते दृढ़वंधनं चिरमतो दुःखं तवात्मन्निदं जानात्येव तथापि किं वहिरसावद्यापिधीर्धावति१४७॥ अर्थः-फिरभी आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि अरे जीव इससंसारमें चेतन अचेतन स्वरूप नाना प्रकारके पदार्थ तथा नानाप्रकारके आकार और भांति २ की संपदा तथा रूप रस आदि सर्व मोहके वशसे रागद्वेषको करनेवाले हैं और मोहके वशसेही देखेगये हैं तथा सुने गये हैं और सेवन कियेगये हैं और इसहीकारण मोहसे चिरकाल पर्यंत वे सर्वपदार्थ तेरे दृढ़वंधन हुवे हैं तथा दृढ़वंधनसे ही तुझै नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़े हैं ऐसा भलीभांति जानतेहुवे भी तेरी बुद्धि वाद्यपदार्थों में दौड़ती है यह बड़े आश्चर्य की बात है। भावार्थः-चेतन अचेतन खी पुत्र कलत्र गृह धन धान्यादि वाह्य पदार्थों में मोहकर चिरकालसे तुझे नानाप्रकारके बंधनोंमें फसना पड़ा है तथा नानाप्रकारके दुःख भी भोगने पड़े हैं ऐसा भलीभांति तुझे ज्ञान है तौ भी नहीं मालूम क्यों अब भी तेरी चित्तवृत्ति वाह्यपदाथोंमें लगी हुई है इसलिये अब वाद्यपदाथोंसें मोह छोड़कर तुझे अपने वास्तविक अनन्तविज्ञानादिस्वरूपका चितवन करना चाहिये ॥१४॥ अब आचार्य इसवातको दिखलाते हैं कि निम्नलिखितप्रकारसे विचार करनेपर किसीप्रकार संसारसे भय नहीं हो सकता। भिन्नोऽहं वपुषो वहिर्मलकृतान्नानाविकल्पौषतः शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमलः शान्तः सदानन्दभाक् । हत्यास्था स्थिरचेतसो दृढ़तरं साम्यादनारम्भिणः संसाराद्वयमस्ति किं यदि तदप्यन्यत्र का प्रत्ययः॥ अर्थः-नानाप्रकारके विष्टा मूत्रआदि मलके घर स्वरूप इस शरीरसे मै मिनहूं तथा मनमें उठै हवे नाना 889998666666666666666666666666666666666666 86 485 484 4 6 6 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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