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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir own ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । संसारूपी समुद्रको तरने की इच्छा करते हो तो एकचित्त होकर नय प्रमाण तथा नाम स्थापना आदिके द्वारा आत्माको भलीभांति जानो और उसहीको आश्रय करो ॥ भावार्थ:-सिवाय आत्मा के संसारमें कोई भी वस्तु प्राह्य नहीं इसलिये इसहीकी तरफ भव्यों को अवश्य ऋजु होना चाहिये ॥ १३९ ॥ मालिनी ___भवरिपुरिह तावदुःखदो यावदात्मंस्तवविनिहतधामा कर्मसंश्लेषदोषः। स भवति किल रागद्वेषहेतोस्तदादौ झटिति शिवसुखार्थी यत्नतस्तो जहीहि ॥१४॥ अर्थः-फिर भी आचार्य कहते हैं कि अरे आत्मा जब तक तेरे साथ समस्त तेज को मूलसे उडाने वाला कर्मोंका बंध लगा हुवा है तबतक तुझको यह संसार रूपी वैरी नानाप्रकारके दुःखोंका देने वाला है तथा वह संसाररूपीवैरी राग द्वेष से उत्पन्न होता है इसलिये यदि तू मोक्षसुखका अभिलाषी है तो शीघही राग | द्वेष को त्याग कर जिससे तेरी आत्माके साथ कर्मका बंध नहीं रहे तथा तुझै संसारका दुःख न भोगना पडे ॥१४॥ स्रग्धरा। लोकस्य त्वं न कश्चिन्न स तव यदिह स्वार्जितं भुज्यते कःसंबन्धस्तेन सार्धं तदसतिसतिवा तत्र को रोषतोषो कायप्यवं जड़त्वात्तदनुगतसुखादावपि ध्वंसभावादेवं निश्चित्य हंस स्ववलमनुसर स्थायि मापश्य पार्श्वम्॥ अर्थः-भो आत्मन् न तो तू लोकका है न तेरा ही लोक है तथा तू ही शुभ अशुभको उत्पन्न करता है तथा तू ही उसको भोगता है फिर इसलोकके साथ संबंध करना वृथा है तथा लोकके होते सन्ते दुःख तथा लोकके होते संते संतोष करना भी व्यर्थ है और शरीर तो जड़ है इसलिये इसके नहीं होते संते क्रोध ...........२०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ܀ ܀ ܀ ܀܀ ܙܬܐ ܝܪܸ، ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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