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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५५॥ 00000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपञ्चविंशतिका । स्रग्धरा वैराग्यत्यागदारुकृतरुचिरचना चारु निश्रेणिका यैः पादस्थानेरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चलैानदृष्टः। योग्या स्यादारुरुक्षोः शिवपदसदनं गन्तुमित्येषु केषां नो धर्मेषु त्रिलोकीपतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु हृष्टिः।। अर्थः-आचार्य कहते हैं कि जिसके इधर उधर वैराग्य तथा त्यागरूपी मनोहर काष्ट लगे हुवे हैं तथा जिसमें बड़े २ मजबूत दशधर्मरूपी पादस्थान (दण्डे ) मौजूद हैं ऐसी सीढ़ी मोक्षरूपी महलकी चढ़ने की इच्छा करनेवाले मनुष्यके चढ़नकेलिये योग्य है क्योंके जो तीनलोकके पतिइन्द्रादिकोंसे बन्दनीक हैं उनदशधर्मों के धारण करनेमे किसको हर्ष नहीं हो सक्ता है? अर्थात् समस्त मोक्षाभिलाषी उनको हर्ष केसाथ पाल सक्ते हैं ॥१६॥ ॥ इसमकार दशधर्मका निरुपण हो चुका ।। अब आचार्य शुहात्माकी परणतिरूपधर्मका वर्णन करते हैं । शाल विक्रीड़ित ।। निःशेषामलशीलसद्गुणमयामत्यन्तसम्यास्थतां बंदे तां परमात्मनःप्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थताम् । यत्रानन्तचतुष्टयामृतसरित्यात्मानमन्तर्गतं न पामोति जरादिदुःसहशिखः संसारदावानलः ॥१०७॥ अर्थः-समस्तनिर्मलशीलगुणस्वरूप तथा सर्वथा समतारूप अवस्थामें होनेवाली और उत्कृष्ट आत्मासे प्रीति करानेवाली तथा जिसके होतेसन्ते किसीप्रकारका कर्तव्य बाकी नहीं रहता ऐसी स्वस्थताको मैं नमस्कार करता हूं जिस अनंतविज्ञानादि अनन्तचतुष्टपखरूप, स्वस्थतारूपी अमृतनदीके भीतर रहेहुवे आत्माको जरा आदि दुःसहशिखाको धारण करनेवाला भी संसाररूपी बड़वानल प्राप्त नहीं हो सक्ता । भावार्थ-जिसप्रकार कोई नदीके जलमें प्रवेशकरजावे तो उसका भयंकर भी अभि कुछ भी नहीं कर 100000000000000000000000000000000000000000000000000000001 ॥५५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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