SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५१ पद्मनंदिपञ्चविंशतिका । तुझे नानाप्रकारकी आपत्तियोंका सामना करना पड़ेगा इसलिये ऐसा भलीभांति समझकर हे मन तू अपनी चंचलताको छोड़दे तथा रतिकर्मके हटानेके लिये सदा जैसे बने वैसे कोशिश कर ॥ ८ ॥ युवतिसंगतिवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजनं भणितं मया। सुरतरागसमुद्रगता जनाः कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि ॥९॥ इति श्रीपानंद्याचार्यविरचितपद्मनंदिपंचविंशतिका समाप्ता। 1660000000000....०००००००००००...................... अर्थः-जो मनुष्य मुमुक्षु हैं मोक्षकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं उन्हीं मनुष्यों केलिये यह मैंने युवति स्त्रियों के संगको निषेध करनेवाला अष्टकका अर्थात् ब्रह्मचर्याष्टकका वर्णन किया है किंतु जो मनुष्य भोगरूपी रागसमुद्र में डूबे हुवे हैं इस अष्टकको अच्छा नहीं समझते हैं वे मुझै मुनि जानकर मेरे ऊपर क्षमाकरें ।। इसप्रकार मुनि श्रीपद्मनंदिआचार्यद्वारा विरचित पद्मनांदिपंचविंशतिकामें ब्रह्मचयोंष्टकनामक अधिकार समाप्तहुवा । 10000०००००००००००००००००००००००००००००००००.००.000000000001 इसप्रकार यह श्रीपद्मनंदिआचार्यहारा विरचित श्रीपद्मनंदिपंचविंशतिकाका नवीनहिन्दीभाषानुवाद समाप्त हुवा । gar " For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy