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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५.६॥ ܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ $ ܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । लिये नानाप्रकारके प्रयत्न करते हैं इसकी रक्षाके उपायों को सोचते हैं तोभी जिसप्रकार विजली क्षणमात्रमें चमककर नष्ट होजाती है उसीप्रकार यह शरीर भी क्षणमात्र में नष्ट होजाता है। तथा शरीरसे ही मनुष्योंको इसससारमें नानाप्रकारके दुःखोंका सामना करना करना पड़ता है इसलिये संसारमें इस शरीरसे अधिक न तो कोई प्राणियोंके लिये अशुभपदार्थ है और न कोई उनको इसशरीरसे अधिक कष्टकाही देनेवाला है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे न तो इसशरीरको जल आदिसे शुद्ध माने और अत्र फुलेल कपूर आदिसे सुगंधित भी न समझै तथा इसको क्षणभरमें विनाशीक समझकर इसकी रक्षाका भी उपाय न करें। नहीं तो उनको पीछे जरूरही पछिताना पड़ेगा ॥ ७ ॥ तंभव्या भूरिभवार्चितोदितमहादृङ्मोहसोल्लसन्मिथ्याबोधविषप्रसंगविकला मंदीभवदृष्टयः । श्रीमत्पंकजनंदिवक्त्रशशिभृद्धिवप्रसूतं परं पीत्वा कर्णपुटैर्भवंतु सुखिनः स्नानाष्टकाख्यामृतम् ॥८॥ _ अर्थः--अनेक भवोंमें जिसका उपार्जन कियागया है ऐसा जो प्रवल दर्शनमोहरूपी महासर्प उसके काटने से तमाम शरीरमें फैलाहवा जो मिथ्यात्वरूपी विष उसके संबन्धसे जो अत्यन्त दु:खित हैं तथा जिनका सम्यग्दर्शन मंदहोगया है ऐसे जो मनुष्य हैं वे श्रीमान् पद्मनंदीआचार्यके मुखरूपी चंद्रमासे निकलाहुवा जो यह स्नानाष्टकरूपी अमृत है उसको अपने कानोंसे पीकर सुखी होवें । भावार्थ:-जिससमय किसीमनुष्यको कालानाग काटलेता है उससमय उसको बड़ा दुःख होता है। तथा समस्तशरीरमें विषके फैलजानेसे उसमनुप्यकी दृष्टि बंद होजाती है । यदि वही मनुष्य कहींसे अमृतको पाकर पान करजावे तो उसका विष सर्वथा नष्ट होजाता है उसीप्रकार इनजीवोंको भी अत्यंत भयंकर तथा वलवान दर्शन मोहरूपी सर्पने काटलिया है तथा दर्शनमोहरूपी सर्पके काटनेसे इनकी आत्मामें मिथ्यात्व ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ । ܀܀܀܀ ता५.०६ ܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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