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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७६॥ 1999.000000000000000०००००००००००००००००००................. पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-मोहका जो उदय वहीहुवा विष उससे व्याप्त यदि वर्गसुखभी संसारमै विनाशीक है तब स्वर्ग से भिन्न जितनेभर सुख हैं उनकी क्या कथा है अर्थात् वेतो अवश्यही विनाशीक हैं इसलिये मुझै संसार संबंधी सुख नहीं चाहिये । भावार्थ:-समस्तमनुष्योंका यह सिद्धांत है कि संसारमें सबसे उत्तम सुख वर्गका सुख है किन्तु यह उन | मनुष्योंका भ्रम है क्योंकि मोहोदयरूपविषसे व्याप्त वह स्वर्ग सुखभी चलायमान है विनाशीक है और जब वर्ग सुख ही चलायमान तथा विनाशीक है तब और सुखतो अवश्यही विनाशीक है इसलिये मुझे संसारके सुखसे कोई प्रयोजन नहीं ॥ ८ ॥ लेक्ष्यीकृत्य सदात्मानं शुद्धबोधमयं मुनिः आस्ते यः सुमतिश्चात्र सोप्यमुत्र चरन्नपि ॥९॥ अर्थः-श्रेष्ठबुद्धिका धारक जो मुनि इसभवमें निर्मलसम्यग्ज्ञानस्वरूप तथा श्रेष्ठ आत्माको लक्ष्य कर रहता है वह परभवमें गयाहुवा भी इसीप्रकार आत्माको लक्ष्यकर रहता है। भावार्थः-आत्मा सम्यग्ज्ञानस्वरूप है तथा अतिश्रेष्ठ है इसलिये जो उत्तम बुद्धिका धारकमुनि इसभव में इसप्रकारके आत्माको लक्ष्यकर रहता है परभवमें गयेहुवे भी उसमुनिका लक्ष्य आत्मामें वैसाही वनारहता है इसलिये मुनियोंको चाहिये कि वे इसीप्रकार आत्मामें लक्ष्यरक्खें ॥ ९॥ वीतरागपथे स्वस्थः प्रस्थितो मुनिपुंगवः । तस्य मुक्तिसुखप्राप्तेः कः प्रत्यूहो जगत्त्रये ॥१०॥ 6. पुस्तक में “ लक्ष्मीकस्म" बद भी पाठ दे ॥ २ स. पुस्तक में " समितिश्वत्र " यह भी पाठ है। ३..पुस्तक "स्वच्छ " यह भी पाठ है। 0.000०००००००००००००००००००००......0000000000004 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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