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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । रूपी धरमें उत्कृष्ट दीपककी शिखाके समान है वही बाणी प्रमाण है ॥ भावार्थ:-जिसप्रकार दीपक कांतिकरसहित होता है और वंदनीय होता है तथा पदार्थोंका प्रकाशकरने वाला होता है उसीप्रकार जो सर्वज्ञकी वाणी स्याहादरूपीकांतिकर सहित है और मनुष्य देव नागकुमार आदि सबोंसे वंदनीय है तथा तीनोंकालोंमें रहनेवाले समस्तपदा को प्रकटकरनेवाली है ऐसी वह त्रिलोकरूपी मकानमें उत्कृष्टदीपकके समान केवलीकी बाणी ही प्रमाण है ॥ १३ ॥ पृथ्वी । क्षमस्व तद्वाणि तजिनपतिश्रुतादिस्तुतौ यदूनमभवन्मनोवचनकायवैकल्यतः। अनेकभवसंभवैर्जडिमकारणैः कर्मभिः कुतोत्र किल मादृशे जननि तादृशं पाटवम् ॥१४॥ अर्थ:-हे मातः सरस्वति मनवचनकायकी विकलतासे जिनेन्द्रभगवानकी स्तुतिमें अथवा शास्त्रकी स्तुतिमें जो कुछ [मुझसे] हीनता हुई है उसको क्षमाकर । क्योंकि अनेकभवोंमें उत्पन्न हुवे तथा जडताके कारण जो कर्म हैं उनसे मेरेसमानमनुष्यमें जिनेन्द्रकी तथा शास्त्रआदिकी भलीभांति स्तुतिकरनेमें कहांसे इतनी चतुरता आसकती है ? ॥ भावार्थ:-हे मातः अनेकभवोंमें उत्पन्न तथा जडताकेकारण घोर कौंका प्रभाव मेरी आत्माके ऊपर पडाहुवा है इसलिये जिनेन्द्रभगवानकी स्तुतिमें तथा शास्त्र आदिकी स्तुतिमें जितनी विद्वत्ता होनी चाहिये उतनीविद्वत्ता मुझमें नहीं है इसलिये मनवचनकायकी विकलतासे जो श्रीजिनेन्द्रकी स्तुतिमें अथवा शाख आदिकी स्तुतिमें हीनता हुई है उसको हे मातः सरखति आप क्षमाकरें ॥ १४ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ४७०। For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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