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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४६८॥ ܪ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका ।। वाले यदि मुझै संसारमें आपके दोनों चरण प्राप्त होगये तो हे देव मैं अपनेको धन्यहूं पुण्यवान हूं समस्तप्रकारकी आकुलताओंकर रहितहूं शांतहूं तथा सब प्रकारकी आपत्तियोंकर भी रहितहूं और ज्ञानीहूं ऐसा भलीभांति समझता हूं । भावार्थ:-हे प्रभो यदि संसारमें जीवोंको अलभ्य हैं तो अतीन्द्रियसुखके करनेवाले आपके चरणकमल ही हैं और जब मुझे उन्हीं की प्राप्ति हो गई तब मैं धन्यहूं, पुण्यवानहूं, निराकुलहूं, शांतहूं, और समस्तप्रकारकी आपतियोंकर रहितहूं तथा ज्ञानीहूं ऐसा मैं अपनेको मानताहूं ॥ ९ ॥ रत्नत्रये तपसि पंक्तिविधेच धर्मे मूलोत्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकार्ये । दर्यात् प्रमादत उतागसि मे प्रवृत्ते मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात् ॥१०॥ अर्थः-हेप्रभो जिनश सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयमें, तपमें, दशप्रकारकेधर्ममें, तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंमें और तीन प्रकारकी गुप्तियोंमें जो कुछ अभिमानसे अथवा प्रमादसे मुझे अपराध लगाहो सो हे जिनदेव हे नाथ आपके प्रसादसे वह मेरा अपराध सर्वथा मिथ्याहो ऐसी प्रार्थना है ॥१०॥ मनोवचोऽङ्गैः कृतमङ्गिपीड़नं प्रमोदित कारितमत्र यन्मया । प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ॥ ११ ॥ अर्थः-हे प्रभो हे जिनेन्द्र प्रमादसे अथवा अभिमानसे जो मैंने मन वचन कायसे जीवोंको पीड़ादी है अथवा दूसरोंसे मैंने दिलवाई है वा जीवोंको पीड़ादेनेवाले दूसरेजीवोंको मैंने अच्छा कहा है इनसे पैदाहुवा वह समस्तपाप मेरा मिथ्या हो ॥ ११ ॥ 000000000000000000000000000000000000000000........००० ४६८ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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