SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४६२।। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः--जो मनुष्य जिसगांवका अध्यक्ष (मुखिया) है यदि उसगांवमें किसीमनुष्यपर कोई अन्य मनुष्य आकर उपद्रवकरै अर्थात् उसको दुःख देवे तो वह ग्रामका मुखिया भी जब उस दुःखितमनुष्यपर करुणा करता है तो हे जिनेन्द्र आपतो तीनोंलोकके प्रभू हैं और मुझे अत्यंत दुष्ट कर्मोंने सतारक्खा है तो क्या आप मेरे ऊपर करुणा न करेंगे ? अवश्य ही दयाकरेंगे ॥ ५ ॥ अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्यो । तेनातिदग्ध, इति मे देव वभूव पलापित्वम् ॥६॥ अर्थ:-हे प्रभो सबका मूलभूत एकही शब्द कहदेना चाहिये वह एक शब्द यही है कि कृपाकर आप मेरे जन्मको [संसारको] सर्वथा नष्ट करें क्योंकि मैं इसजन्मसे अत्यंतदुःखित हूं इसीलिये यह मेरा आपके सामने प्रलाप हुआ है अर्थात् मैं विलप २ कर रो रहा हूं ॥६॥ तव जिन चरणाब्जयुगं करुणामृतसंगशीतलं यावत् । संसारातपतप्तः करोमि हृदि तावदेव सुखी ॥७॥ अर्थः-हे प्रभो हे जिनन्द्र संसाररूपी आतपसे संतप्तहुआ मैं जबतक दयारूपी जलके संगसे अत्यन्त शीतल ऐसे आपके दोनों चरणकमलोंको हृदयमें धारणकरता हूं तभीतक मैं सुखी हूं। भावार्थ:-जिसप्रकार कोई मनुष्य धूपके संतापसे अत्यंत संतप्त होवे तथा उससमय पानीकें संबंधसे अत्यंतशीतल ऐसे कमलोंको अपने हदयपर धरे तो जिसप्रकार वह सुखी होता है उसीप्रकार हे प्रभो हे जिनेंद्र मैं भी संसारके प्रखर संतापसे अत्यंत संतप्त हूं इसलिये जबतक मैं दयारूपी जलके संबंधसे अत्यंत शीतल ऐसे आपके दोनों चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारणकरता हूं तबतक मैं अत्यंत सुखी रहता हूं ॥७॥ 200००००००००००००००००००००००००० ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy