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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४५६॥ १०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००00000000 पभनन्दिपञ्चविंशतिका । दीगई अत्यंत निर्मल जो अक्षतोंके पुंजोंकी पंक्ति है वह अत्यंत शोभित होती है सो ठीक ही है क्योंके जो मनुष्य अत्यंत शूरवीर है उसके मस्तकपर बंधाहुआ ही वीरपट्ट शोभाको प्राप्त होता है डरपोकके मस्तकपर बंधाहुआ शोभाको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ:-जो मनुष्य शूरवीर है उसके शिरपर बंधाहुआ वीरपट्ट जिसप्रकार शोभाको प्राप्तहोता है उसप्रकार डरपोकके शिरपर बंधाहुआ वीरपट्ट शोभाको नहीं प्राप्तहोता उसीप्रकार जो मनुष्य इन्द्रियरूपी धूतोंसे अक्षत है अर्थात् जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं है उन्ही मनुष्योंको आश्रयकर दीहुई यह निर्मल अक्षतोंके पुंजोंकी श्रेणि सुशोभित होती है किंतु जो मनुष्य इन्द्रियोंके आधीन है उनमनुष्यकलिये दाहुई अक्षतोंके पुंजोंकी पंक्ति शोभित नहीं होती जिनेन्द्रदेवने समस्तइन्द्रियोंको वशमें करलिया है इसलिये उनको आश्रयकर दीहुई यह यह अक्षौके पुंजोंकी पंक्ति शोभित होती है ॥३॥ अक्षतम् । साक्षादपुष्पशर एष जिनस्तदेनं संपूजयामि शुचिपुष्पसुरैर्मनोज्ञैः॥ नान्यं तदाश्रयतया किल यन्न तत्र तत्तत्र रम्यमधिकां कुरुते च लक्ष्मीम् ॥ अर्थः-ये जिनेन्द्रभगवान साक्षात अपुष्पशर हैं अर्थात् मदनकरके रहित हैं इसीलिये मैं इन जिनेन्द्र भगवानका अत्यंत मनोहर ऐसे फूलोंके हारोंसे पूजनकरता हूं किंतु भगवानसे जो अन्य हैं वे मदनकर रहित नहीं है सहित ही हैं इसलिये फूलोंके हारोंसे उनकी पूजा नहीं करता क्योंकि जो चीज जहांपर नहीं होती है वही वहांपर मनोहर समझी जाती है और वह वहांपर अत्यंत शोभाको प्राप्त होती है किंतु जो चीज जहां पर होती है वह वहांपर मनोहर नहीं होती और न वहांपर अत्यंत शोभाको ही धारण करसकती है। भार्वार्थ:-यह नियम है कि जो चीजजहांपर नहीं होतीहै वही वहाँपर मनोहर समझीजातीहै तथा वही ००००००००००००००००००००००००००००००००00000000000000000000000 ॥४५६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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