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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । शुभ्रं साभिनयोमरुच्चललतापर्यंतपाणिश्रिया सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथः सदा ॥६॥ अर्थ ः— जिस श्रीशांतिनाथ भगवानका भक्तिसहित अशोकवृक्ष खिलेहुए जो फूल उनके जो गुच्छे उन पर बैठेहुए जो शब्दकरतेहुए भ्रमर उनसे प्रभुके निर्मलयशको गानकररहा है ऐसा मालूम होता है और पवनसे कंपित जो लता उनके जो अग्रभाग वेही हुए हाथ उनसे ऐसा जान पडता है मानों नृत्य ही कर रहा हो ऐसे वे समस्तपापोंकर रहित श्रीशांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो । भावार्थः — जिसके खिले हुवे फूलोंके गुच्छोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं और जिसके शाखाओंके अग्रभाग पवनसे हिलरहे हैं ऐसे अशोक वृक्षके नीचे बैठे ध्यानारूढ़ भगवानको अपने मनमें भावनाकर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जो अशोक वृक्षके फूलेहुवे फूलोंपर भ्रमर गुंजार शब्द कररहे हैं वे शब्द उनके गुंजार के शब्द नहीं है किंतु भक्तिवश होकर अशोक वृक्ष भगवान के निर्मल यशका गान कररहा है तथा वे जो पबनसे अशोक वृक्षकी लताओंके अग्रभाग हिल रहे हैं वे लताओं के अग्रभाग नहीं है किन्तु वे अशोक वृक्षके हाथ हैं तथा हाथ फैलाकर अशोक वृक्ष भक्तिवश होकर नृत्य कररहा है इसलिये जिनका अशोक वृक्ष भक्तियुक्त होकर ऐसी चेष्टा कर रहा है ऐसे वे समस्तपापकर रहित श्रीशांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो ||६|| विस्तीर्णाखिलवस्तुतत्वकथनापारप्रवाहोज्वला निश्शेषार्थिनिषेवितातिशिशिरा शैलादिवोडुंगतः । प्रोद्धता हि सस्वती सुरनुता विश्वं पुनाना यतः सोऽस्मान्पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथः सदा ७ अर्थः- जो अत्यंत विस्तीर्ण है तथा समस्ततत्वों का जो कथन वहीहुवा प्रवाह उससे उज्वल है और जिसकी समस्त अर्थिजन ( याचक) सेवा करते हैं और जो अत्यंत शीतल है तथा जिसकी समस्तदेव स्तुति करते हैं और जो समस्तजगतको पवित्रकरने वाली है ऐसी सरस्वती (गंगा) अत्यंत ऊंचे पर्वत के समान For Private And Personal ॥४५२॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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