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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ०००००००००००००0000000000000000000000००००००००००००००००००००० www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-इससंसार में भ्रमके करनेवाले अनेकमागाँमें से जो गुरु लोकको सुखके देनेवाले एक मोक्षमार्ग को लेजाते हैं तथा स्वयं उच्चज्ञानके धारक हैं ऐसे उन श्रेष्ट गुरुओं को उसीमार्गमें जानेकी इच्छाकरनेवाला मैं भी मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ ६ ॥ ॥ उपाध्याय परमेष्टीकी स्तुति ॥ शार्दूल विक्रीड़ित । शिष्याणामपहाय मोहपदलं कालेन दीर्घेण यज्जातं 'स्यात्पदलाञ्छितोज्वलवचो-दिव्याञ्जनेन' स्फटम । ये कुर्वन्ति दृशं परामतितरां सर्वावलोके क्षमा लोके कारणमन्तरेण भिपजस्तेपान्तुनोऽध्यापकाः ॥६॥ अर्थः--जो उपाध्यायपरमेष्ठी अनादिकालसे लगेहुवे मोहके परदेको स्याहादसे अविरोधी एसे अपने उपदेशरूपी दिव्य अंजनसे हटाकर शिष्योंकी दृष्टि को अत्यंत निर्मल तथा समस्तपदाके देखने में समर्थ बनाते हैं एसे विनाकारणके ही वैद्य वे उपाध्याय मेरी इस संसारमें रक्षा करो ॥११॥ साधु परमेष्ठीकी स्तुति । शार्दूल विक्रीड़ित ।। उन्मच्यालयबंधनादपि दृढात्कायेऽपि वीतस्पृहाश्चिते मोहविकल्पजालमपि यद्दर्भेद्यमन्तस्तमः । भेदायास्य हि साधयन्ति तदहो ज्योतिर्जितार्कप्रमं ये सदोधमयं भवन्तु भवतां ते साधवः श्रेयसे ॥६॥ अर्थः-जो साधु परमेष्ठी अत्यन्तकठिन भी गृहरूपी बंधनसे अपनेको छुटाकर तथा अपने शरीरमें भी इच्छा रहित होकर कठिनतासे भेदने योग्य ऐसे मोहसे पैदाहुवे विकल्पों के समूहरूप भीतरी अंधकारके नाश करनेकेलिये सूर्य की प्रभाको भी नीची करनेवाली सम्यग्ज्ञानरूपीज्योतीको निरन्तर सिद्ध करते रहते हैं। ऐसे उन साधु परमेष्ठी केलिये नमस्कार है अर्थात वे मेरे कल्याणकेलिये होवे ॥२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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