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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४४२॥ पअनन्दिप श्चविंशतिका। अर्थः-जोवर्धमानखामी तीनलोकके ईश्वर होने परभी अपने शरीर में भी निस्पृह (इच्छा रहित) होते हुवे वे अंतिमजिनेन्द्र वर्धमानवामी नमस्कार करतेहुवे मुझपद्मनंदिमुनिकेलिये मोक्ष प्रदान करो ॥२४॥ इसप्रकार इस श्रीपद्मनंदी आचार्यविरचित श्रीपद्मनांदपंचविंशतिकामें स्वयंभूस्तोत्र "चतुर्विशतिजिनेन्द्र" स्तोत्र समाप्त हुवा ।। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܘܙܙܪܪܙܘ सुप्रभाताष्टकस्तोत्रम् । शार्दूलविक्रीड़ित । निश्शेषावरणदयस्थिति निशाप्रान्तेन्तरायक्षयो द्योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दूरतः । सम्यग्ज्ञानदृगक्षियुग्ममभितो विस्फारितं यत्रत लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो यतिभ्यो नमः॥१॥ अर्थः--दोनो जो निश्शेषावरण अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण उनकी जो स्थिति वही हुई रात्रि उसके अंतहोनेपर तथा अंतराय कर्मके क्षयहोनेसे प्रकाशहोनेपर और मोहिनीय कर्मकेद्वारा किये हुवे निद्राके भारके शीघ्रही दूरहोने पर जिससुप्रभातमें सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शनरूपदोनों नेत्र उन्मीलित हुवे (खुले) उस अचल सुप्रभातको जिन यतियोंने प्राप्त करलिया है उन यतियोंकेलिये नमस्कार है ॥ भावार्थ:-जिसप्रकार प्रभातकालमें रात्रिका सर्वथा अंत होजाता है तथा प्रकाश प्रकट होजाता है और निद्राका नाश होजाता है अर्थात् सोते हुवे प्राणी उठ बैठते हैं और दोनों नेत्र खुल जाते हैं उसी प्रकार जिस सुप्रभातमें ज्ञानावरण और दर्शनावरणके सर्वथा नाशहोनेपर तथा मोहनीय कर्मकी कृपासे उत्पन्न हुई निद्राके सर्वथा दूर होजाने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन प्रकट हुवे और ऐसे सुप्रभातको जिन मुनियोंने For Private And Personal ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 1४४२॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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