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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbaarth.org Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir 000000000000000000000000000०००००००००..nvrninाम पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-और भी आचार्य कहते हैं कि कोधादि कर्मोकेद्वारा तो प्राणियों के कर्मों का बंध कभी २ ही होता है किन्तु परिग्रहसे प्रतिक्षण बंध होता रहता है अतएव परिग्रह धारियों को किसीकालमें तथा किसी प्रदेशमें भी सिरि नहीं होती । इसलिये भव्यजीवोंको कदापि धनधान्यसे ममता नहीं रखनी चाहिये ॥ ५ ॥ इंद्रवज्रा। मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी । यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुर्भवेत्किमत्र कृताभिलापः ॥ ५५॥ अर्थः-स्त्री पुत्र आदिकी अभिलाषाका करना तो दूर रहो यदि मोक्षकेलिये भी अभिलाषा की जावे तो वह दोषस्वरूप समझी जाती है तथा इसीलिये वह मोक्षकी निषेध करनेवाली होती है। इसीलिये जो मुनि अपनी आत्माके रसमें लीन है तथा मोक्षके अभिलाषी हैं वे स्त्री पुत्र आदिमें कब अभिलाषा कर सक्ते हैं। भावार्थ-मोहके उदयसे ही पदार्म इच्छा होती है तथा जब तक मोह रहता है तब तक मोक्ष कदापि नहीं होसक्ती इसलिये मोक्षकेलिये भी अभिलाषा करना दोष है अतः मोक्षाभिलाषी मुनियों को आत्मरसमें ही लीन रहना चाहिये ॥ ५५ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ परिग्रहवतां शिवं यदि तदानलः शीतलो यदीन्द्रियसुखं सुखं तदिह कालकूटः सुधा। स्थिरा यदि तनुस्तदा स्थिरतरं तडिच्चाम्बरे भवेऽत्र रमणीयता यदि तदीन्द्रजालेऽपि च ॥५६॥ अर्थ-यदि परिग्रहधारियों को भी मुक्ति कही जावेगी तो अभिको भी शीतल कहना पड़ेगा तथा यदि इन्द्रियोंसे पैदाहुवे सुखको भी मुख कहोगे तो विषको भी अमृत मानना पडेगा और यदि शरीरको स्थिर कहोगे For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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