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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । है तथा समस्त पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है इसलिये आचार्यवर कहते हैं कि ऐसे सरस्वतीके तेजकेलिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ २ ॥ तव स्तवे यत्कविरस्मि साम्प्रतं भवत्प्रसादादिव लब्धपाटवः सवित्रि गंगासरितेऽर्घदायको भवामि तत्तजलपूरिताञ्जलिः ॥ अर्थः-हे सरस्वतिमातः आपकी कृपासे ही प्राप्त किया है चातुर्य जिसने ऐसा जो मैं इससमय आपकी स्तुति करने में कवि हुआ हूं उससे ऐसा मालूम होता है कि गंगा नदी के जलसे पूरित (भरी हुई) है मंजिली जिसकी ऐसा मैं गंगा नदीकलिये ही अर्घदेनेवाला हुआ हूं। भावार्थ:-जिसप्रकार गंगानदीसे पानी लेकर उसीको अर्घ देते हैं उसीप्रकार हे मातः सरस्वति आपकी कृपासे ही चातुर्यप्राप्तकर आपकी स्तुति, ही मैं कवि हुआ हूं ॥३॥ श्रुतादिकेवल्यपि तावकीं श्रियं स्तुवन्नशक्तोऽहमिति प्रपद्यते जयति वर्णदयमेवमादृशा वदंति यद्देवि तदेव साहसम् ॥ अर्थ:-हे सरस्वति मातः आपकी शोभाकी स्तुति करताहुआ श्रुत है आदिमें जिसके ऐसा केवली भी अर्थात् श्रुतकेवली भी जब “मैं सरस्वतीकी शोभाकी स्तुति करनेमें" असमर्थ हूं ऐसा अपनेको मानता है तव मुझसरीख मनुष्योंकी तो क्या बात है ? अर्थात् मुझसरीखे मनुष्य तो आपकी स्तुति कर ही नहीं सकते किंतु हे देवि जो मुझसरीखे मनुष्य आपकेलिये जय इन दो वर्णोंको भी बोलते हैं वही मेरेसरीखे मनुष्योंका एक बड़ा भारी साहस है ऐसा समझना चाहिये। भावार्थः-यद्यपि श्रुतकेवली समस्त शास्त्रके पारंगत होते हैं किंतु हे मातः आपकी लक्ष्मी (शोभा) 10000000000000000000000000000000000000००००००००0044010004 जयात ४०९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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