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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४००11 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܝ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । क्षुधातृषा आदि अठारह दोषों के जीतनेवाले हैं तथा अष्ट कर्मों के जीतनेकेकारण आप बार है इसलिये आपको छोड़कर ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी दृष्टि चंद्रमामें प्रीतिको करेगी ? ॥ २१ ॥ दिखे तुमम्मि जिणवर चिंतामणिकामधेणुकप्पतरू खजायब्व पहाये मज्झ मणे णिप्पहा जाया ॥ रष्टे त्वयि जिनवर चिंतामणिकामधेनुकल्पतरव: सचोता इव प्रभाते मम मनसि निष्प्रभा जाता: ॥ अर्थ:-हे प्रभो जिनेन्द्र आपके देखने पर जिसप्रकार सुबहके समय में पटवीजना प्रभा रहित हो जाता है उसीप्रकार चिंतामाणी कामधेनु और कल्पवृक्ष भी मेरे मनमें प्रभारहित हो गये ॥ भावार्थ:--जब तक अंधेरी रात रहती है तब तक तो पटवीजनाका प्रकाशभी प्रकाश समझा जाता है किंतु जिससमय प्रातःकाल होता है और सूर्यकी किरण जहां तहां चारो ओर कुछ फैल जाती है उस समय जिसप्रकार उस पटवीजनाका प्रकाश कुछ भी नहीं समझा जाता उसी प्रकार हे प्रभो । जब तक मैं ने आपको नहीं देखा था तब तक मैं चिंतामणी कामधेनु तथा कल्पवृक्षों को उत्तम समझता था क्योंकि संसारमें ये इच्छाके पूरण करनेवाले गिने जाते हैं किंतु जिससमयसे मैंने आपको देख लिया है उससमय से मेरे मनमें आपही तो चिंतामणी हैं तथा आपही कामधेनु और कल्पवृक्ष है किंतु जिनको संसारमें चिंतामणी कामधेनु कल्पवृक्ष कहते हैं वे आपके दर्शनके सामने फीके हैं ॥२२॥ दृष्टे तुमम्मि जिणवर रहसरसो यह मणम्मि जो जाओ आणांदासुमिसासो तत्तो णीहरइ बहिरंतो ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४० ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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