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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । आपके उपदेशको ही अच्छा न मानेगा तबतक उसको वास्तविक पदार्थका स्वरूप नहीं मालूम पड़सकता और वास्तविक स्वरूपके न जाननेसे वह मोक्षको नहीं जासकता किंतु जिसमनुष्यका मन मिथ्यात्वरूपी कलंकसे कलंकित नहीं है अर्थात् जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि है वह मनुष्य आपके दर्शनसे अत्यंत कठिन भी मोक्षको सुलभरीतिसे प्राप्त करलेता है ॥ १५ ॥ दिढे तुमम्मि जिणवर चम्ममएणाच्छिणावि तं पुण्णं जं जणह पुरोकेवलदंसणणाणाइ णयणाई॥ दृष्टे वयि जिनवर चर्ममयेनाक्ष्णापि सरपुण्य यजनयति पुरः केवलदर्शनशानानि नयनानि । अर्थः--हे प्रभो जो मनुष्य आपको इस चामके नेत्रसे भी देखलेता है उस मनुष्यको उसअपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है जो पुण्य आगे केवलदर्शन तथा केवलज्ञानरूपीनेत्रोंको उत्पन्न करता है। भावार्थ:-हे प्रभो जो मनुष्य आपको चर्मके नेत्रोंसे देख लेता है उस मनुष्यको जब उसचमके नेत्रसे देखते ही इतने पुण्यकी प्राप्ति होती है कि वह आगे केवलदर्शन तथा केवलज्ञानको भी प्राप्त करलेता है अर्थात् वह पुरुष चारघातिया काँको नाशकर केवली बनजाता है तब जो पुरुष आपको दिव्यनेत्रसे देखता है उसको क्या २ फलकी प्राप्ति न होगी अर्थात् दिव्यदृष्टिसे आपको देखनेवाला मनुष्य तो अवश्य ही अचिंत्य फलको प्राप्त करताहै इसमें किसीप्रकारका संशय नहीं ॥ १५ ॥ दिठे तुमम्मि जिनवर सुकयत्थो मण्णई ण जेणाप्पा सो वहुअ वडुणोढुडुणाइ भवसायरे काही ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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