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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पानन्दिपश्चविंशतिका । रष्ट त्वयि जिनवर भवनमिदं तव महाऱ्यातरम् सर्वासामपि श्रीणां संकेतगृहमिव प्रतिभाति । अर्थः हे प्रभो जिनेश्वर आपके देखनेसे यह जो बहुमूल्य आपका मंदिर है वह मेरोलिये समस्तप्रकार की लक्ष्मीके संकेत घरके समान है ऐसा मुझे मालूम पड़ता है। भावार्थ:-हे भगवन् आपके दर्शनसे यह आपका स्थान मुझे ऐसा मालूम पड़ता है मानों समस्तप्रकारकी लक्ष्मीकी प्राप्तिकेलिये मेरेलिये संकेत घर है ॥ १२ ॥ दिखे तुमम्मि जिणवर भतिजलोल्लं समासियं छत्तं जंतं पुलयमिसा पुणवीयांकुरियमिव सोहइ ॥ रष्ट खथि जिनवर भक्तिजलौघेन समाभितं मित्रम् ।। यत्तत्पुळकमिषात पुण्यवीजमंकुरितमिव शोभते ॥ अर्थ:-हे प्रभो हे जिनेन्द्र आपके देखनेसे जो मेस क्षेत्र (शरीर) भक्तिरूपी जलसे समाश्रित हुआ (सींचागया) वह शरीर रोमांचोंके बहानेसे ऐसा शोभित होता है मानों अंकुरस्वरूपसे परिणत पुण्यचीज ही है। भावार्थः--हे प्रभो हे जिनेन्द्र जिससमय मैं आपको भक्तिपूर्वक देखता हूं उससमय मारे आनंदके मेरे शरीरमें रोमांच होजाते हैं तथा वे रोमांच ऐसे मालूम होते हैं मानों पुण्यरूपीवीजसे अंकुर ही उत्पन्न हुए हों ॥१३॥ दिवे तुमम्मि जिणवर समयामयसायरे गहीरंम्मि रायाइदोसकलुसे देवे को मण्णइ सयाणे ॥ रहे वथि जिनवर समयामृतसागरे गंभीरे ।। रागादिदोषकलुषे देवे को मन्यते सशानः ॥ 18॥३९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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