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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । क्योंकि सूर्यके उदय होनेपर रात्रिका अंधकार कितने कालतक रहसक्ता है ? भावार्थ:--हेजिनन्द्र जिसप्रकार अत्यंत प्रबलभी रात्रिका अंधकार सूर्यके देखतेही पलभरमें नष्ट हो जाता है उसीप्रकार हेकृपानिधान अत्यंत जवर्दस्त, तथा बड़ाभारीभी पाप आपके दर्शनसे पलभरमें नष्ट हो जाता हे ॥४॥ दिखे तुमम्मि जिणवर सिज्झइ सो कोवि पुण्णपन्भारो होइ जणो जेण पहु इह परलोयत्थसिद्धीणं । रष्टे स्वयि जिनवर सिष्यति स कोऽपि पुण्यप्राग्भर: __ भवति जनो येन प्रभुः इहपरलोकस्थसिद्धीनाम् ।। अर्थः हेजिनेन्द्र आफ्के देखनेसे ऐसे किसी उत्तम पुण्योंके समूहकी प्राप्ति होती है कि जिसकी कृपा से यहजन इसलोक तथा परलोक दोनों लोककी सिद्धियोंका स्वामी होजाता है। भावार्थ:-जोमनुष्य आपका दर्शन करते हैं उनको हेप्रभो ऐसे अप्रूव पुण्यकी प्राप्ति होती है कि वे उस पुण्यकी कृपासे इसलोकमें तो तीर्थकर चक्रवर्ती आदि विभूतियोंको प्राप्त करते हैं तथा परलोकमें आणिमा महिमा आदि ऋद्धियों के धारी इन्द्र अहमिन्द्र आदि विभूतियों को पाते हैं ॥ ५॥ दिखे तुमम्मि जिणवर मण्णे तं अप्पणो सुकयलाहम होही सो जणासारससहनिही अक्खओ मोक्खे ॥ दृष्ट त्वयि जिनवर मन्य तमात्मनः सुकृतलाभम् ___ भविष्यति यनासहशमुखानिधिः अक्षया मोक्षः । अर्थः-हेजिनेश हेप्रभो आपके देखनेसे उस पुण्यलाभ को मानता हूं जिस पुण्यलाभसे असाधारण सुखका निधि तथा अविनाशी ऐसे मोक्षपद की प्राप्ति होती है॥६॥ 10000000000000000000000000000000000०.००००००००००००००००००० "३९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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