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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1८७ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ $܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पअनन्दिपजाबिंशतिका । खयरिव्व संचरंती तिहुयणगुरु तुह गुणोहगयणम्मि दूरंपि गया सुइरं कस्स गिरा पचयरंता ॥ खचरीव संचरंती त्रिभुवनगुरो सब गुणौषगगने दूरमपि गता सुचिरं कस्य गोः प्राप्तपर्वता ॥ अर्थः-हे त्रिभुवनगुगे हे जिनेन्द्र आपके गुणों के समूहरूपी आकाशमें गमन करनेवाली तथा दूरतक गईहुई ऐसी किसकी वाणीरूपी पक्षिणी है ? जो अंतको प्राप्त हो जावे । भावार्थ:-जिसप्रकार आकाशमें गमन करनेवाली पक्षिणी यदि दूरतक भी उडती २ चली जावे तोभी आकाशके अंतको नहीं प्राप्त करसकती है क्योंकि आकाश अनंत है उसीप्रकार हे प्रभो आपके गुण भी अनंत हैं इसलिये कवि अपनी वाणीसे चाहे जितना आपके गुणोंका वर्णन करै तौभी उसकी वाणी आपके गुणोंके अंतको नहीं पा सकती ।। ५९ ॥ जच्छअसको सको अणीसरो ईसरो फणीसोवि तुह थोत्ते तच्छ कई अहममई तं खमिजासु ॥ ___यत्राशक्तः शक्तोऽनीश्वर ईश्वरः फणीश्वरोऽपि तव स्तोत्र तत्र वा कविः अहममति: तरक्षमस्व ।। अर्थः--हे गुणागार प्रभो जिस आपके स्तोत्रकरनेमें इन्द्र भी असमर्थ हैं और महादेव तथा शेषनाग का भी अशक्त हैं उस आपके स्तोत्र करने में मैं अल्पबुद्धि कवि क्या चीज हूं? इसलिये मैं ने भी जो आपका का स्तोत्र किया है उसको क्षमा कीजिये । भावार्थ:-हे प्रभो हे जिनेन्द्र आपके गुणोंका स्तोत्र इतना कठिन है कि साधारण मनुष्योंकी तो क्या 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1३८७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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