SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ܤܤ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । संज्ञा दूसरोंकी मानते हैं वे मूढमनुष्य चंद्रमाकी चांदनीका खद्योत (जिगुनू) के साथ संबंध करते हैं ऐसा मालूम होताहै। भावार्थ:--खद्योतका (पटबीजनाका) प्रकाश बहुत कम होता है और शीतल नहीं होता और चंद्रमाका प्रकाश अधिक तथा शान्तिका देनेवाला होता है यह बात भलीभांति प्रतीति सिद्ध है ऐसे होनेपर भी जो मनुष्य चंद्रमाकी अधिक तथा शीतल चांदनीको यदि खद्योतकी चांदनी कहै तो जिसप्रकार वह मूर्ख समझा जाता है उसीप्रकार हे प्रभो वास्तविक रीतिसे तो ब्रह्मा आदिक संज्ञा आपकी ही है किंतु जो मनुष्य चतुर्मुख व्यक्तिको ब्रह्मा कहता है तथा गोपिकाओंके साथ रमण करनेवालेको पुरुषोत्तम (विष्णु) कहता है और पार्वती नामकी स्त्रीके पतिको महादेव कहता है वह मनुष्य मूर्ख है क्योंकि ब्रह्मा आदिक जो संज्ञा है वे सार्थक हैं तथा उनका अर्थ चतुर्मुख आदि व्यक्तियों में घट नहीं सकता इसलिये वे ब्रह्मा आदिक नहीं हो सकते ॥५१॥ आदिनाथ स्तोत्रमें भी यही बात कही है वसंततिलका। बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद्व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥ अर्थः-हे आदीश्वर भगवन् आपके ज्ञानकी बड़े २ देव आकर पूजन करते हैं इसलिये आप ही बुद्ध हो किंतु आपसे भिन्न दूसरा कोई भी बुद्ध नहीं तथा आपही तीनोंलोकके कल्याणके करनेवाले हैं इसलिये आप ही शंकर हो किंतु आपसे भिन्न कोई भी शंकर (महादेव) नहीं है और हे धीर मोक्षमार्गकी विधिके रचना करनेवाले आपही हैं इसलिये आप ही विधाता (ब्रह्मा) हैं किंतु आपसे भिन्न कोई भी व्यक्ति ब्रह्मा नहीं है और आप प्रकट रीतिसे समस्त पुरुषों में उत्तम हैं इसलिये आप ही पुरुषोत्तम (विष्णु) हैं किंतु ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 11३८२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy