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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ...००००० 1००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पअनन्दिपञ्चविंशतिका । तथा श्रुतज्ञानका धारी आपके वचनमें विवाद करै तो उसका भी विवादकरना निरर्थक ही है क्योंकि आप केवली हैं तथा आपके ज्ञानमें समस्तलोक तथा अलोकके पदार्थ हाथकी रेखाके समान झलक रहे हैं और वह प्रतिवादी मनुष्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका धारी होनेककारण थोड़ेही पदार्थोंका ज्ञाता है ॥ ३४ ॥ भिण्णाण परणयाणं एकेकमसंगयाणया तुज्झ पावति जयम्मि जयं मज्झम्मि रिऊण किं चित्तं ॥ भिन्नानां परनवानाम् एकमेकमसंगतानां तच प्राप्नुवंति जगत्रय जयं मध्ये रिपूणां किं चित्रम् ॥ अर्थः- हे भगवन् हे प्रभो आपके नय, परस्परमें नहीं संबंध रखनेवाले, तथा भिन्न, ऐसे परवादियोंके नयरूपीवैरियोंके मध्यमें तीनोंजगतमें विजयको प्राप्त होते हैं इसमें कोई भी आश्रर्य नहीं । भावार्थ-परस्परमें नहीं संबंध रखनेवाले तथा एकदूसरेके विरोधी ऐसे शत्रु, जिनमें एकता है तथा एकदूसरेके विरोधी नहीं हैं ऐसे योधाओंके द्वारा जिसप्रकार बातकीबातमें जीतलिये जाते हैं तो जैसा उन शत्रुओंके जीतनेमें कोई आश्चर्य नहीं है उसीप्रकार हे प्रभो जो परवादियोंकी नय परस्परमें एकदूसरेसे संबंध नहीं रखनेवाली हैं तथा भिन्न हैं ऐसी उन नयोंको यदि परस्परमें संवंधरखनेवाली तथा अभिन्न आपकी नय जीवलेबे तो इसमें क्या आश्चर्य है? कुछ भी आर्य नहीं है ॥३५॥ अण्णस्स जए जीहा कस्स सयाणस्स वण्णणे तुज्झ जच्छ जिण तेवि जाया सुरगुरुपमुहा कई कुंठा ॥ 0000000000000000000000.............. ॥३७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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