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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । कौंको नाश करदिया उससमय उनको बड़ाभारी भयहुआ कि हम भी अब निर्मूल किये जायंगे इसीलिये | वे मरेहुएके समान अशक्त ही आपकी आत्मामें स्थित रहे ॥ २०॥ णाणामणिणिम्माणे देव हिउ सहसि समवसरणम्मि । उपरिव्व सण्णिविहो जियाण जोईण सव्वाणं ॥ नानामाणिनिर्माण देव स्थित: शोभते समवंशरणे __अपरि इव सन्निविष्टः यावतां योगिनां सर्वेषाम् ।। अर्थः-हे जिनेश हे प्रभो जिससमवशरणकी रचना चित्रविचित्र मणियोंसे की गई थी ऐसे समवशरणमें जितनेभर मुनि थे उन समस्तमुनियोंके ऊपर विराजमान आप अत्यंत शोभाको प्राप्त होते थे ॥२१॥ लोउत्तरावि सा समवसरणसोहा जिणेस तुद्द पाये । लहिऊण लहइमाहिमं रविणो णलिणिव्व कुसुमा॥ लोकोत्तरापि सा समवशरणशोभा जिनेश तव पादौ । कच्चा लभव महिमानं रचेः नलिनीव कुसुमस्था । अर्थ:-हे भगवन् हे प्रभो जिसप्रकार पुष्पमें स्थित कमलिनी सूर्यके किरणोंको पाकर और भी अधिक महिमाको प्राप्त होती है उसीप्रकार यद्यपि समवशरणकी शोभा स्वभावसे ही लोकोचर होती है तो भी हे जिनेन्द्र आपके चरणकमलोंको पाकर वह और भी अत्यंत महिमाको धारण करती है। भावार्थः-एकतो कमलिनी स्वभावसे ही अत्यंत मनोहर होती है किंतु यदि वही कमलिनी सूर्यके किरणोंको प्राप्तहो जावे तो और भी महिमाको प्राप्त होती है उसीप्रकार समवशरणकी शोभा एक तो खभावसे 0000000000000000000000000000000000000000000000000 Tat२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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