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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३५९ .......०.०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । वरग्गदिणे सहसा वसुहा जुण्णंतिणव्व जं मुका देव.तएसा अजवि विलवह सरिजलरवा वरई । वैराग्यदिने सहसा वसुधा जीर्णतणमिव यत् मुक्ता देव स्वया सा अद्यापि क्लिपति सरिजलमिषण बराकी । अर्थ:-हे जिनेश हे प्रभो जिसदिन आपको वैराग्य हुआ था उसदिन जो आपने यह पृथ्वी पुराने तृणके समान छोड़दीथी वह दीनपृथ्वी इससमयभी नदीके व्याजसे विलाप कररही है। भावार्थ:-जिससमय नदीमें जलका प्रवाह आता है उससमय नदी कल २ शब्द करती है उसको अनुभवकर ग्रंथकार उपेक्षा करते है कि हेप्रभो यह नदी जो कल २ शब्द कर रही है यह इसका कल २ शब्द नहीं है किंतु यह कल २ शब्द इसपृथ्वीके विलापका शब्द है क्योंकि जिसदिन आपको वैराग्य हुवाथा उस समय आपने इस बिचारी पृथ्वीको सड़ेतृणके समान छोड़ दिया था और आप इसके नाथ थे, इसलिये आपके हारा ऐसा अपमान पाकर यह विलाप कररही है । और कोईभी कारण नहीं ॥१६॥ अइ सोइओसि तइया काउस्सग्गडिओ तुमं णाह धम्मिकघरारंभे उज्झीकय मूलखंभोव्व । भतिशोभिताऽसि तदा कायोत्सर्गास्थितस्त्वं नाथ धर्मैकगृहारंभे उकित मूलस्तंभ इव । अर्थः हेभगवन हेप्रभो जिससमय आप कायोत्सर्गसहित विराजमानथे उससमय धर्मरुपी घरके निर्माणमें उन्नत मूलखंभके समान आप अत्यंत शोभित होते थे । भावार्थ:-हेमगवन् जिससमय आप कायोत्सर्गमुद्राको धारणकर वनमें खड़े वे उससमय ऐसा मालूम .................००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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