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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shei Kailashsagarsuri Gyanmandie ॥३५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:--जबतक ऋषभदेव भगवानकी उत्पत्ति पृथ्वीतलपर नहीं हई थी उससमयतक इंसजम्बूद्वीपमें भोगभूमिकी रचना थी और उस भोगभूमिकी स्थितिमें समस्तजीव भोगविलासी ही थे क्योंक युगलिया उत्पन्न होते थे और जिससमय उनको जिसबातकी अवश्यकता होती थी उससमय उसवस्तुकी प्राप्तिकोलिये उनको प्रयत्न नहीं करना पड़ता था किंतु वे सीधे कल्पवृक्षोंके पास चलेजाते थे तथा जिसबातकी उनको अभिलाषा होती थी उस अभिलाषाकी पूर्ति उन कल्पवृक्षों के सामने कहनेपर ही हो जाती थी क्योंकि उससमय दशप्रकारके कल्पवृक्ष मौजूद थे तथा जुदी २ सामिग्री देकर जीवोंको आनंद देते थे। किंतु जिससमय भगवान आदिनाथका जन्म हुआ उससमय जम्बूदीपमें कर्मभूमिकी रचना हो गई भोगभूमिकी रचना न रही, तथा : कल्पवृक्षभी नष्टहोगये उससमय जीव भूखे मरने लगे और उनको अपनी आजीविकाकी फिक्र पड़ी तव उस समय भगवान आदीश्वरने असि, मषि, वाणिज्य, आदिका उपदेश दिया तथा और भी नानाप्रकारके लौकिक उपदेश दिये जिससे उनको फिरभी वैसाही सुख मालूम होनेलगा इसलिये कर्मभूमिको आदिमें भगवान आदि नाथने ही कल्पवृक्षोंका काम किया था इसलिये इसीवातको ध्यानमें रखकर ग्रंथकार भगवानकी स्तुति करते हैं कि हे प्रभो जिनप्रजाओंकी आजीविका भोगभूमिकी रचनाके समय बहुतसे कल्पवृक्षोंसे हुईथी वही आजीविका कर्मभूमिके समय विना कल्पवृक्षोंके आप अकेलेनहीं की इसलिये हेजिनेंद्र आप कल्पवृक्षों में भी उत्तमकल्पवृक्षहैं॥१३॥ पहुणा तए सणाहा धरा सती एकहन्नहो बूढो णवघणसमयसमुल्लसि यसासछम्मेण रोमंचो । प्रभुणा खया बनाया घरा आसीत् तस्याः कथमहोवृद्धः नवधनसमयसमुहातश्वासच्छचना रोमांचः । .0000000000000000000000000000000000000000०.००.००.००००० ॥३५७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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