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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३५५. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनान्दपश्चविंशतिका । सारार्थः-आपके समान रूपवान संसारमें दूसरा कोई भी मनुष्य नहीं था ॥९॥ तित्थत्तणमावो मेरु तुह जम्मण्हाणजलजोए । तत्तस्स सूरपमुहा पयाहिणं जिण कुणात सया । सीस्थत्वमापनो मेरुस्तव जन्मत्रानजलयोगेन तत् तस्य सूरप्रमुखाः प्रदक्षिणां जिन कुर्वति। अर्थः-हे प्रभो हे जिनेंद्र जिससमय आपका जन्मस्नान मेरुके ऊपर हुआ था उससमय उसस्नानके जलके संबंधसे मेरु तीर्थपनेको प्राप्तहुआ था अर्थात् तीर्थ बना था और इसीलिये हे जिनेंद्र उस मेरुपर्वतकी सूर्य चंद्रमा आदिक सदा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। भावार्थः-आचार्य उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो जबतक मेरुपर्वतके ऊपर आपका जन्मस्लान नहीं हुआ था तबतक वह मेरुपर्वत सामान्यपर्वतोंके समान था और तीर्थ भी नहीं था किंतु जिससमयसे आपका जन्मस्नान मेरुके ऊपर हुआ है उससमयसे उस आपके जन्मस्नानके जलके संबंधसे मेरुपर्वत तीर्थ अर्थात पवित्र स्थान होगया है और यह बात संसार में प्रत्यक्षगोचर है कि जो वस्तु पवित्र हुआकरती है उसकी लोग भक्ति तथा परिक्रमा आदि करते हैं इसीलिये उसमेरुको पवित्रमानकर सूर्य चंद्रमा आदि रातदिन उसमेरुकी प्रदक्षिणा (परिकमा) करते रहते हैं ऐसा मालूम होता है ॥ १० ॥ मेरुसिरे पडणुच्छलि यणीरताडणपणट्टदेवाणं । तं वित्तं तुह पहाणं तह जह णहमासियं किण्णं ॥ मरुशिरसि पतनाच्छलननीरताडनप्रनष्टदेवानाम् तद्वृत्तं तव स्नानं तथा यथा नभ भाश्रितं कीर्णम् । ३५५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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