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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्यनान्दपश्चविंशतिका । चम्मच्छिणावि देहेतइतइलोयेण माइ महहरिसो णाणाच्छिणा उणोजिण ण याणिमोकिं परिप्फुरह। चमक्षिणापि दृष्टे त्वयि त्रैलोक्ये न माति महाहर्षः ___ ज्ञानाक्ष्णा पुनर्स जिन न जानीमः किं परिस्फुरति । अर्थ:-हे जिनेंद्र हे भगवन् यदि हम आपको चामकी आंखसे भी देखलें तो भी हमें इतना भारी हर्ष होता है कि वह हर्ष तीनोंलोकों में नहीं समाता फिर यदि आपको हम ज्ञानरूपी नेत्रसे देखें तबतो हम कही नहीं सकते कि हमको कितना आनंद न होगा ? भावार्थः-चर्मके नेत्रका विषय परिमित तथा बहुत थोड़ा है इसलिये उसचर्मनेत्रसे आपका समस्तस्वरूप हमको नहीं दीखसकता किंतु हेप्रभो उसचर्मनेत्रसे जो कुछ आपका स्वरूप हष्टिगोचर होता है उससेही हमको इतना भारी हर्ष होता है कि औरकी तो क्या बात वह तीनोंलोकमें भी नहीं समाता किंतु यदि हम ज्ञानरूपी नेत्रसे आपके समस्तस्वरूपको देखे तब हम नहीं जानसकते हमको कितना आनन्द न होगा ? ॥३॥ तं जिण णाणमणंतं विसईकयसयलवत्थुवित्थारं जो थुणइ सो पयासह समुद्दकहमवटसालूरो। ___ त्वां जिन ज्ञानमतं विषयीकृतसकलवस्तुचिस्तारं यास्तीति स प्रकाशयति समुद्रकथामवटसालूरः । अर्थः-हे जिनेंद्र जो पुरुष, नहीं है अत जिसका तथा जिसने समस्तवस्तुओंके विस्तारको विषयकर लिया है ऐसे ज्ञानस्वरूप आपकी स्तुति करता है वह कूवाका मैढ़क समुद्रकी कथा का वर्णन करता है। भावार्थ:-जिसप्रकार कूवाका मैढ़क समुद्रकी कथा नहीं करसकता उसीप्रकार हे जिनेंद्र जो पुरुष .000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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