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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ३२६॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । तज्जयति यत्र लब्धे श्रुतभुवि मत्यापगातिधावन्ती । व्यावृत्ता दूरादपि झटिति स्वस्थानमाश्रयति ॥ ५० ॥ अर्थः- जिस चैतन्यरूपतत्व के प्राप्त होने पर शास्त्ररूपीभूमिमें अत्यंत दौड़ती हुई बुद्धिरूपी नदी दूरसेही लौटकर शीघ्रही अपनेस्थानको प्राप्तहोजाती है ऐसा वह चैतन्यरूपीतत्व सदा इसलोकमें जयवंत है ॥ भावार्थ - जबतक बुद्धि शास्त्रमें लगी रहती है तबतक कदापि उसचैतन्यतत्व ( परमात्मतत्त्व ) की प्राप्ति नहीं होती किन्तु जिससमय चैतन्यकी प्राप्तिहोनेपर बुद्धि शास्त्रसे व्यावृत्तहोजाती है अर्थात् शास्त्रसे फिरजाती है उससमय बुद्धि शीघ्रही अपने चैतन्यस्वरुपको प्राप्त होती है इसलिये वह चैतन्यरूपीतल सदा इसलोक में जयवंत है ॥ ५० ॥ और भी आचार्यवर उपदेश देते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तन्नमत गृहीताखिलकालत्रयजगत्त्रयव्याप्ति । यत्रास्तमेति सहसा सकलोऽपि हि वाक्परिस्पन्दः ॥ ५१ ॥ अर्थः — ग्रहण की है तीनोंकालोंमें तीनोंजगतकी व्याप्ति जिसने तथा जिसके होतेसंते समस्तवाणीका परिस्पन्द शीघ्रही नष्ट होजाता है उसचैतन्यको नमस्कार करो ॥ भावार्थः – जो चैतन्य तीनोंकालोंमें तीनोंजगत में व्यापरहा है और जिसचैतन्यका वाणीसे सर्वथा 'वर्णन नहीं करसक्ते उसचैतन्यरुपीतेजको नमस्कार करो ॥ ५१ ॥ तन्नमत विनष्टाखिलविकल्पजालडुमाणि परिकलिते । यत्र वहन्ति विदग्धा दग्धवनानीव हृदयानि ॥ ५२ ॥ For Private And Personal ।।३२६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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