SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ३२० ॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । सारार्थः – जो भव्यजीव समस्तकमोंकर रहित चैतन्यस्वरूप उनसिद्धों का ध्यानकरते हैं उनको सिद्धपद की प्राप्ति होती है ॥ ४० ॥ मैं ही चैतन्यस्वरूप हूं इसबातको आचार्य दिखाते हैं । अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एवं नान्यत्किमपि जडत्वात्प्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥ ४१ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थः—मैंही चैतन्यस्वरूप हूँ और मेरे चैतन्यस्वरूपका आश्रय वह चैतन्यहीं है और चैतन्यसे भिन्न वस्तु चैतन्यस्वरूप नहीं है और न चैतन्यसे भिन्नवस्तु मेरे चैतन्यकी आश्रय हैं क्योंकि वे जड़ हैं मेरी प्रीति उनमें नहीं हो सकती, प्रीति समानपदार्थोंमेंही कल्याणकी करनेवाली होती है । भावार्थः -- जिसप्रकार अग्निका लक्षण उष्णता है और वह कदापि अझसे जुदा नहीं रहसक्ता उसीप्रकार आत्माका लक्षण ज्ञान है और वह कदापि आत्मासे जुदा नहीं रहसक्ता इसलिये वहज्ञानस्वरूप मैं हूं और मेरे चैतन्यस्वरूपका आश्रय ज्ञानादिस्वरूप चैतन्यही है किन्तु चैतन्यसे भिन्न अर्थात् जिनमें चेतनता नहीं रहती है ऐसे पुद्गल धर्म अधर्म आकाशआदि जो द्रव्य हैं वे मेरा स्वरूप नहीं है और न वे मेरे आधार हैं क्योंकि वे जड़ हैं और मैं चेतनहूं और पुद्गल आदिपदार्थोंमें मेरी प्रीति भी नहीं हो सकती क्योंकि वे मेरे समानजातीय नहीं है मेरा समानजातीय तो चैतन्यही है इसलिये मेरी प्रीति उसीमेंही है और चैतन्यमें की हुई प्रीति ही सुझे सुखको देसक्ती है और देती है ॥ ४१ ॥ स्वपरके विवेकसेही आत्मा परको छोड़कर शुद्ध होता है ऐसा आचार्यवर दिखाते हैं For Private And Personal ॥ ३२० ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy