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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir माम ܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पचनन्दिपंञ्चविंशतिका । पुत्र मित्र आदिक पदार्थ हैं उन पदार्थोसे भी क्या प्रयोजन है ॥ ३३ ॥ __ मैं निर्मलज्ञानस्वरूप तथा निर्विकार हूं ज्ञानी इसबातका विचार करता है इसबातको आचार्य कहते हैं। मयि चेतः परजातं तच्च परं कर्मविकृतिहेतुरतः किं तेन निर्विकारः केवलमहममलबोधात्मा ॥ ३४ ॥ अर्थः-मेरी आत्मामें जो मन है वह सुझसे भिन्न है क्योंकि वह परपदार्थसे उत्पन्न हुआ है और जिससे मन उत्पन्न हुआ है ऐसा वह कर्म भी मुझसे भिन्न है क्योंकि वह विकारका करनेवाला है और मैं तो निश्चयसे विकार रहित हूं और निर्मलज्ञानका धारी हूं। भावार्थ:--यदि मन पर न होता और कर्म, विकारोंके करनेवाले न होते तव तो मैं उनको अपना मानता किन्तु मनतो मुझसे सर्वथा पर है क्योंकि वह जड़कर्मसे पैदा हुआ है और कर्म मुझै विकृत करनेवाला है अर्थात् मेरे ज्ञानादिगुणोंका घात करनेवाला है इसलिये मैं उनदोनोंको अपना कैसे मानूं ? इसलिये मैं तो विकार रहित हूं तथा निर्मलज्ञानका धारी हूं अर्थात् निर्मलज्ञानस्वरूप हूँ॥३४॥ मोक्षाभिलाषियोंको समस्तप्रकारकी चिताओंका त्यागकरदेना चाहिये इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं। त्याज्या सर्वा चिन्ततिबुद्धिराविष्करोति तत्तत्त्वम् चन्द्रोदयायते यचैतन्यमहोदधौ झटिति ॥ ३५॥ अर्थः-समस्तप्रकारकी चिंता त्यागनेयोग्य हैं जिससमय इसप्रकारकी बुद्धि होती है उससमय वहबुद्धि उत्सतत्त्वको प्रकट करता है कि जो तत्त्व चैतन्यरूपी प्रबलसमुद्र में शीघही चंद्रमाके समान आचरण करता है। भावार्थ:-जिसप्रकार चंद्रमाके उदयहोने पर समुद्र वृद्धिको प्राप्त होता है उसीप्रकार समस्त चिंताएं 0000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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