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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 100000 ound ........................................... पजनन्दिपंचविंशतिका । कर्मही कर्ता है किन्तु अत्यंत निर्मलज्ञानका धारी मैं नहीं हूं क्योंकि मैं सदा समस्तप्रकारकी, कमसेि पैदा हुई जो उपाधियां उनसे रहित हूं। भावार्थ:-कर्मके द्वारा जो राग, द्वेष, सुख, दुःख, आदिकार्य होते हैं उनसमस्तका का कर्ता, कर्मही है किन्तु मेरी आत्मा उन सुख दुःख आदिकाौँका कर्ता नहीं है क्योंकि मेरी आत्मा अत्यंत शुद्धज्ञानका घारी है और सदा समस्तप्रकारकी जो कर्मजनित उपाधियां हैं उन उपाधियोंसे रहित है॥ ३० ॥ बाह्यविकारोंकोभी मोही जीव सदा आत्मस्वरूपही मानता है इसवातको आचार्यवर दिखाते हैं। बाह्यायामपि विकृती मोही जागर्ति सर्वदात्मेति । किं नोपभुक्तहेमो हेमग्रावांणमपि मनुते ॥ ३१ ॥ अर्थः--जो मनुष्य धतूरेको खालेता है उसमनुष्यको जिसप्रकार पत्थरभी सोना मालूम पड़ता है उसीप्रकार जो मनुष्य मोही है अर्थात् जिसमनुष्यको हिताहितका ज्ञान नहीं है वह मनुष्य बाह्य स्त्री पुत्र आदि विकृतिको आत्माही मानता है। भावार्थ:--धूलि मट्टी पत्थर आदिक पदार्थ यद्यपि सुवर्ण नहीं है किन्तु जिसमनुष्यने धतूस पी लिया है उसको वे सुवर्णही मालूम पड़ते हैं उसीप्रकार यद्यपि निश्चयनयसे स्त्री पुत्र धन धान्य पदार्थ जड़पदार्थ हैं इसलिये अपने नहीं हैं तोभी जिन मनुष्योंकी आत्मापर प्रवलमोहरूपी पर्दा पड़ाहुवा है उनको वे सब विपरीत ही सूझते हैं अर्थात् मोही मनुष्य उनसबको अपनाही मानता है ॥ ३१॥ मोक्ष की इच्छाकरनेवाला मनुष्य इसवातका विचार करता रहता है। सति द्वितीये चिन्ता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म । एकोऽस्मि सकलचिन्तारहितोऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम् ॥ ३२ ॥ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ३१४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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